Wednesday, 12 August 2015

कृष्ण और सुदामा की मित्रता "Aadhyastha"

सुदामा जी श्री कृष्णजी के बचपन के मित्र थे।
दोनो संदीपन ऋषि के आश्रम में साथ-साथ
पढ़ाई किये थे। सुदामा ब्राह्मन पुत्र थे,
और श्रीकृष्ण राजकुमार थे। दोनो आश्रम में एक
ही साथ हकर गुरू से शिक्षा प्राप्त किये थे।
दोनों में अटूट प्रेम था।पढ़ाई समाप्त कर दोनो
अपने-अपने घर चले गयेथे।
एक बार पत्नी की इच्छा से सुदामा जी
अपने मित्र श्रीकृष्ण से मिलने गये । श्रीकृष्ण उन
दिनों द्वारिका के राजा थे।सुदामा जी की
पत्नी सुशीला ने श्रीकृष्ण जी के भेंट स्वरूप कुछ टूटे
चावल की पोटली (जो पड़ोस से माँगकर लाई
थी ) बनाकर सुदामा जी को साथ दिया था।
क्योंकि सुदामा जी अत्यन्त गरीब ब्राह्मन थे।
सुदामा जी चलते-चलते जब थक गये , तो एक पेड़ के
नीचे थकावट दूर करने के लिए थोड़ी देर सो गए।
जागते ही विप्र सुदामा को यह जानकर आश्चर्य
हुआ कि द्वारिका नगरी आ गई है।क्योंकि प्रभु
को सुदामा की दीन अवस्था देखकर दया आ गई
, उन्हे लगा सुदामा जी इतनी दूर चल कर कैसे आ
पायेंगे इसलिए नींद में ही द्वारिका पहुँचा
दिये।
सुदामा जी द्वारपाल से पूछे कि
क्या यही द्वारिका नगरी है? द्वारपाल ने
कहा हाँ। अब सुदामा जी की प्रसन्नता की
कोई सीमा नहीं थी।सुदामा जी अब अपने परम
मित्र से मिलने वाले थे। द्वारपाल से सुदामा
जी विनयपूर्वक कहने लगे, मुझे श्रीकृष्ण से मिलना
है भाई, जाकर संदेश दे दो ।द्वारपाल सुदामा
जी की दीन हीन अवस्था देखकर कहने लगा, आप
कौन हैं?कहाँ
से आए हैं? तथा आपको श्रीकृष्ण से क्यों मिलना
है? तब सुदामा ने कहा मैं उनके बचपन का सखा हूँ ।
मेरा नाम सुदामा है। मैं वृंदापुरी से आया हूँ।
जाकर आप श्रीकृष्ण से बता दीजिये ।सुदामा
जी की बात सुनकर द्वारपाल को बहुत आश्चर्य
हुआ , फिर भी वो श्रीकृष्ण जी से उसी क्षण
महल में सुदामा जी का संदेस देने गया। द्वारपाल
ने श्रीकृष्ण से कहा प्रभु द्वार पर एक अत्यन्त
गरीब विप्र आया है। तन पर वस्त्र नहीं है, धोती
भी जगह-जगह से फटी हुइ है।सर पर टोपी नहीं है,
नंगे पाँव है। ग़रीबी के कारन शरीर भी अत्यन्त
झुका हुआ है और अपना नाम सुदामा बतलाता
है।कहता है वो आपके बचपन का मित्र है।
द्वारपाल के मुख से सुदामा नाम
सुनते ही प्रभु तत्क्षण द्वार की तरफ़ दौड़ पड़े।आदर
सहित सुदामा को भवन में लाकर अपने आसन पर
बैठाया। उनकी दीन अवस्था देखकर प्रभु के
आँखों से आँसु बहने लगे, अपने आँसु से प्रभु ने सुदामा
जी के चरन धोए।नवीन वस्त्र पहनाए।अपने साथ
भोजन कराया।दोनो मित्र बचपन की यादों में
खो गए। श्रीकृष्ण ने कहा आपकी भाभियाँ भी
आपके दर्शन करना चाहती हैं।सुदामा जी ने कहा
हाँ उन्हे बुला लो , मैं भी उनके दर्शन करना
चाहता हूँ।इतना कहना था कि भाभियों की
लाइन लग गई। सुदामा जी ब्राह्मण थे, इसलिए
एक -एक कर सभी भाभियाँ उनसे आशीर्वाद लेने
लगी।सुदामा जी आशीष देते देते अब थकने लगे।
कृष्ण जी से पूछा ,भाई और कितनी हैं? श्रीकृष्ण
ने मुस्कुराते हुए कहा पूरे सोलह हजार एक सौ आठ
।सुदामा जी के होश उड़ गए, उन्होंने कहा मैं
आपको ही आशीर्वाद दे देता हूँ,भाभियों को
अपनेआप आशीष मिल जायेगा।कृष्णजी हँसकर
बोले हाँ यही ठीक है।पुनः बिनोद करते हुए
सुदामा जी से पूछने लगे ,कहो मित्र तुम्हारी
शादी हुई या नहीं? सुदामा ने कहा हाँ हो गई।
आपकी भाभी का नाम सुशीला है। श्रीकृष्ण ने
हँसते हुए कहा , मुझे शादी में तुमने क्यों नहीं
बुलाया? सुदामा जी मुस्कुराते हुए बोले हाँ
मित्र मुझसे बड़ी भूल हो गई। ये भूल मैंने सिर्फ़ एक
बार किया परन्तु आपने सोलह हज़ार एक सौ आठ
बार बिबाह रचाकर, मेरे लिए कितनी बार
निमंत्रण पत्र भेजा ।कृष्णजी शरमा गए।
इसी तरह दोनों मित्र विनोद करते
रहे और अपने बचपन की बात याद करते रहे।फिर
श्रीकृष्ण ने पूछा, भाभी ने हमारे लिये भेंट में
क्या भेजा है? कुछ तो भेजा ही होगा ?
सुदामा जी शर्म से चावल की पोटली छुपा रहे
थे। श्रीकृष्ण की महारानियों के सामने एवं महल
की ठाट-बाट से वे सकुचा रहे थे।कृष्णजी भी
कहाँ मानने वाले थे। सुदामा जी को पोटली
बगल में छिपाते हुए उन्होंने देख लिया
था,इसलिए स्वयं उनसे हठ करके चावल की पोटली
ले लिए और प्रेम से पोटली का चावल खाने लगे।
एक-एक कर जब दो मुटठी चावल खा लिए और
तीसरी मुट्ठी खाने ही वाले थे, कि रुक्मिणि
जी ने प्रभु का हाथ पकड़ते हुए कहा , प्रभु आप
भाभी का भेजा हुआ भेंट स्वयं ही खा लेंगे या
हमारे लिए भी कुछ बचायेंगे? रुक्मिणि जी
जानती थी, प्रभु ने दो मुट्ठी चावल खाकर
सुदामा जी को दो लोक तथा समस्त ऐश्वर्य
प्रदान कर दिया है,यदि प्रभु तीसरी मुट्ठी भी
खा लेंगे तो अपना तीसरा लोक भी प्रदान कर
देंगे।इसलिये उन्होंने प्रभु का हाथ बहाने से रोक
दिया।सुदामा जी की निश्छल भक्ति तथा
अनन्य प्रेम देखकर श्रीकृष्ण ने भाव विह्वल होकर
सुदामा के दो मुट्ठी चावल के बदले सुदामा जी
का सोया भाग्य जगाया था।

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