Tuesday, 4 August 2015

आदि शंकराचार्य

आदि शंकराचार्य
तिथि 509 से 477 ई॰पू॰ [1]
जन्मस्थान कलड़ी , केरल , भारत
दर्शन अद्वैत वेदांत
गुरू गोविंद भगवत्पाद
प्रभाव हिंदू धर्म , हिंदू दर्शन

आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता थे।
उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की
एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार
परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण
दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त
संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का
अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन , कठ ,
प्रश्न , मुण्डक , मांडूक्य , ऐतरेय, तैत्तिरीय,
बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य
लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र
ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार
तथा वार्ता पूरे भारत में की। उस समय वेदों
की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न जैन और
बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा
खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर
चार मठों की स्थापना की।
भारतीय संस्कृति के विकास में आद्य
शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है।
आचार्य शंकर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी
तिथि ई. पू. ५०९ को तथा मोक्ष ई. पू. सन् ४७७
स्वीकार किया जाता है। शंकर दिग्विजय,
शंकरविजयविलास, शंकरजय आदि ग्रन्थों में
उनके जीवन से सम्बन्धित तथ्य उद्घाटित होते
हैं। दक्षिण भारत के केरल राज्य (तत्कालीन
मालाबारप्रांत ) में आद्य शंकराचार्य जी
का जन्म हुआ था। उनके पिता शिव गुरु
तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे।
भारतीय प्राच्य परम्परा में आद्यशंकराचार्य
को शिव का अवतार स्वीकार किया
जाता है। कुछ उनके जीवन के चमत्कारिक तथ्य
सामने आते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि
वास्तव में आद्य शंकराचार्य शिव के अवतार
थे। आठ वर्ष की अवस्था में गोविन्दपाद के
शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो जाना,
पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक
की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की
अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर
भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर
अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा में
जाकर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त
की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को
संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित
तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर
समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना -
इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देता
है। चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी
शंकराचार्यपीठ, पूर्व ( ओडिशा )
जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम
द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में
ज्योतिर्पीठ भारत की एकात्मकता को
आज भी दिग्दर्शित कर रहा है। कुछ लोग
शृंगेरी को शारदापीठ तथा गुजरात के
द्वारिका में मठ को काली मठ कहते र्है। उक्त
सभी कार्य को सम्पादित कर 32वर्ष की आयु
में मोक्ष प्राप्त की।
महत्व
शंकराचार्य के विषय में कहा गया है-
अष्टवर्षेचतुर्वेदी, द्वादशेसर्वशास्त्रवित्
षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात्
अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में
निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी
शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में
शांकरभाष्यतथा बत्तीस वर्ष की आयु में
शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर
शांकरभाष्यकी रचना कर विश्व को एक सूत्र
में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य के
द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य
मानव से सम्भव नहीं है। शंकराचार्य के दर्शन में
सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम
दर्शन, कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म उनका
निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार
ईश्वर है। जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से
युक्त है। तत्त्वमसि तुम ही ब्रह्म हो; अहं
ब्रह्मास्मि मै ही ब्रह्म हूं; 'अयामात्मा
ब्रह्म' यह आत्मा ही ब्रह्म है; इन
बृहदारण्यकोपनिषद् तथा
छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस
जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न
स्थापित करने का प्रयत्न शंकराचार्य जी ने
किया है। ब्रह्म को जगत् के उत्पत्ति, स्थिति
तथा प्रलय का निमित्त कारण बताए हैं।
ब्रह्म सत् (त्रिकालाबाधित) नित्य,
चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है। ऐसा उन्होंने
स्वीकार किया है। जीवात्मा को भी सत्
स्वरूप, चैतन्य स्वरूप तथा आनंद स्वरूप स्वीकार
किया है। जगत् के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं
कि -
नामरूपाभ्यां व्याकृतस्य
अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियत
देशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य
मनसापि अचिन्त्यरचनारूपस्य
जन्मस्थितिभंगंयत:।
अर्थात् नाम एवं रूप से व्याकृत, अनेक कर्ता,
अनेक भोक्ता से संयुक्त, जिसमें देश, काल,
निमित्त और क्रियाफल भी नियत हैं। जिस
जगत् की सृष्टि को मन से भी कल्पना नहीं कर
सकते, उस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय
जिससे होता है, उसको ब्रह्म कहते है। सम्पूर्ण
जगत् के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार
करना, तथा तर्क आदि के द्वारा उसके सिद्ध
कर देना, आदि शंकराचार्य की विशेषता
रही है। इस प्रकार शंकराचार्य के व्यक्तित्व
तथा कृतित्वके मूल्यांकन से हम कह सकते है कि
राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का कार्य
शंकराचार्य जी ने सर्वतोभावेनकिया था।
भारतीय संस्कृति के विस्तार में भी इनका
अमूल्य योगदान रहा है।
तिथियाँ
आदि गुरू शंकराचार्य का जन्म केरल के
कालडी़ नामक ग्राम मे हुआ था। वह अपने
ब्राह्मण माता-पिता की एकमात्र सन्तान
थे। बचपन मे ही उनके पिता का देहान्त हो
गया। शन्कर की रुचि आरम्भ से ही सन्यास
की तरफ थी। अल्पायु मे ही आग्रह करके
माता से सन्यास की अनुमति लेकर गुरु की
खोज मे निकल पडे।। वेदान्त के गुरु गोविन्द
पाद से ज्ञान प्राप्त करने के बाद सारे देश का
भ्रमण किया। मिथिला के प्रमुख विद्वान
मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ मे हराया। परन्तुं
मण्डन मिश्र की पत्नि भारती के द्वरा
पराजित हुए। दुबारा फिर रति विज्ञान मे
पारंगत होकर भारती को पराजित किया।
उन्होने तत्कालीन भारत मे व्याप्त धार्मिक
कुरीतियों को दूर कर अद्वैत वेदान्त की
ज्योति से देश को आलोकित किया।
सनातन धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने भारत में
चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना
की तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके
उस पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन
किया। उत्तर मे ज्योतिर्मठ, दक्षिण मे
श्रन्गेरी, पूर्व मे गोवर्धन तथा पश्चिम मे
शारदा मठ नाम से देश मे चार धामों की
स्थापना की। ३४ साल की अल्पायु मे पवित्र
केदार नाथ धाम मे शरीर त्याग दिया। सारे
देश मे शंकराचार्य को सम्मान सहित आदि गुरु
के नाम से जाना जाता है।
जीवन
एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र ७
वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के
घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में
भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न
था। ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर
एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता
का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर
उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित
हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी
का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन
ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने
लगा। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ
महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में
सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत् जननी
महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण
परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला,
दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह
बालक था- ‘'शंकर'’, जी आगे चलकर '‘जगद्गुरु
शंकराचार्य'’ के नाम से विख्यात हुआ। इस
महाज्ञानी शक्तिपुंज बालक के रूप में स्वयं
भगवान शंकर ही इस धरती पर अवतीर्ण हुए थे।
इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह
के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई,
तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के
साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल
तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर
आराधना की। आखिर प्रसन्न होकर भगवान
शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- ‘वर
माँगो।’ शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरु से एक दीर्घायु
सर्वज्ञ पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा-
‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और
सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम
कैसा पुत्र चाहते हो?’ तब धर्मप्राण
शास्त्रसेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की
याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुन:
कहा- ‘वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति
होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ
अवतीर्ण होऊँगा।’
कुछ समय के पश्चात ई. सन् ६८६ में वैशाख शुक्ल
पंचमी (कुछ लोगों के अनुसार अक्षय तृतीया )
के दिन मध्याकाल में विशिष्टादेवी ने परम
प्रकाशरूप अति सुंदर, दिव्य कांतियुक्त बालक
को जन्म दिया। देवज्ञ ब्राह्मणों ने उस
बालक के मस्तक पर चक्र चि, ललाट पर नेत्र चि
तथा स्कंध पर शूल चि परिलक्षित कर उसे
शिवावतार निरूपित किया और उसका
नाम ‘शंकर’ रखा। इन्हीं शंकराचार्यजी को
प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रद्धांजलि
अर्पित करने के लिए श्री शंकराचार्य जयंती
मनाई जाती है। जिस समय जगद्गुरु
शंकराचार्य का आविर्भव हुआ, उस समय भरत में
वैदिक धर्म म्लान हो रहा था तथा मानवता
बिसर रही थी, ऐसे में आचार्य शंकर मानव धर्म
के भस्कर प्रकाश स्तम्भ बनकर प्रकट हुए। मात्र
३२ वर्ष के जीवनकाल में उन्होंने सनातन धर्म
को ऐसी ओजस्वी शक्ति प्रदान की कि
उसकी समस्त मूर्छा दूर हो गई।
शंकराचार्यजी तीन वर्ष की अवस्था में
मलयालम का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर चुके थे।
इनके पिता चाहते थे कि ये संस्कृत का पूर्ण
ज्ञान प्राप्त करें। परंतु पिता की अकाल मृत्यु
होने से शैशवावस्था में ही शंकर के सिर से
पिता की छत्रछाया उठ गई और सारा बोझ
शंकरजी की माता के कंधों पर आ पड़ा।
लेकिन उनकी माता ने कर्तव्य पालन में कमी
नहीं रखी॥ पाँच वर्ष की अवस्था में इनका
यज्ञोपवीत संस्कार करवाकर वेदों का
अध्ययन करने के लिए गुरुकुल भेज दिया गया। ये
प्रारंभ से ही प्रतिभ संपन्न थे, अत: इनकी
प्रतिभ से इनके गुरु भी बेहद चकित थे। अप्रतिम
प्रतिभा संपन्न श्रुतिधर बालक शंकर ने मात्र २
वर्ष के समय में वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण,
महाभरत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए। तत्पश्चात
गुरु से सम्मानित होकर घर लौट आए और
माता की सेवा करने लगे। उनकी मातृशक्ति
इतनी विलक्षण थी कि उनकी प्रार्थना पर
आलवाई (पूर्णा) नदी, जो उनके गाँव से बहुत दूर
बहती थी, अपना रुख बदल कर कालाड़ी
ग्राम के निकट बहने लगी, जिससे उनकी
माता को नदी स्नान में सुविधा हो गई। कुछ
समय बाद इनकी माता ने इनके विवाह की
सोची। पर आचार्य शंकर गृहस्थी के झंझट से दूर
रहना चाहते थे। एक ज्योतिषी ने जन्म-पत्री
देखकर बताया भी था कि अल्पायु में इनकी
मृत्यु का योग है। ऐसा जानकर आचार्य शंकर
के मन में संन्यास लेकर लोक-सेवा की भवना
प्रबल हो गई थी। संन्यास के लिए उन्होंने माँ
से हठ किया और बालक शंकर ने ७ वर्ष की आयु
में संन्यास ग्रहण कर लिया। फिर जीवन का
उच्चतम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए माता से
अनुमति लेकर घर से निकल पड़े।

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