Sunday, 23 August 2015

यजुर्वेद ७-३३

विद्वान और विदुषी को चाहिए की उनसे शिक्षा ग्रहण करने आये छात्र छात्राओं में सुई मात्र भेद ना करें वैसे जिसमें भेदभाव का अवगुण हो वह विद्वान/विदुषी हो ही नहीं सकता/सकती

और हर माता पिता को चाहिए की निश्चित की हुई आयु के पश्चात् पुत्र पुत्री को शिक्षा ग्रहण हेतु विद्वान/विदुषी को सौंप दें जिससे उनमें उत्तम संस्कारों और  का संचार हो सके

और छात्र छात्राओं को भी चाहिए की दूसरी बेमतलब की बातों का बेमतलब के कार्यों का त्याग कर ब्रह्मचर्यपर्यन्त शिक्षा ग्रहण करें

यजुर्वेद ७-३३ (7-33)

ओमा॑सश्चर्षणीधृतो॒ विश्वे॑ देवास॒ आ ग॑त । दा॒श्वासो॑ दा॒शुषः॑ सु॒तम् । उ॑पया॒मगृ॑हीतो सि॒ विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यऽए॒ष ते॒ योनि॒र्विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यः॑ ॥

भावार्थ:- सब विद्वान् और विदुषी स्त्रियों की योग्यता है कि समस्त बालक और कन्याओं के लिये निरन्तर विघयादान करें, राजा और धनीं आदि लोगों के धन आदि पदार्थों से अपनी जीविका करें और वे राजा आदि धनी जन भी विघया और अच्छी शिक्षा से प्रवीण होकर अपने पढ़ाने वाले विद्वान् वा विदुषी स्त्रियों को धन आदि अच्छे-अच्छे पदार्थों को देकर उनकी सेवा करें। माता और पिता आठ-आठ वर्ष की कन्याओं को विघयाभ्यास, ब्रह्मचर्य्य सेवन और अच्छी शिक्षा किये जाने के लिये विद्वान् और विदुषी स्त्रियों को सौंप दें। वे भी विघया ग्रहण करने में नित्य मन लगावें और पढ़ाने वाले भी विघया और अच्छी शिक्षा देने में नित्य प्रयत्न kre vj

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