Tuesday, 4 August 2015

जगद्गुरु सुदर्शनाचार्य का शास्त्रार्थ

शास्त्रार्थ

वे केरल प्रदेश से लंबी पदयात्रा करके नर्मदा तट
स्थित ओंकारनाथ पहुँचे। वहाँ गुरु गोविंदपाद
से योग शिक्षा तथा अद्वैत ब्रह्म ज्ञान
प्राप्त करने लगे। तीन वर्ष तक आचार्य शंकर
अद्वैत तत्व की साधना करते रहे। तत्पश्चात गुरु
आज्ञा से वे काशी विश्वनाथजी के दर्शन के
लिए निकल पड़े। जब वे काशी जा रहे थे कि
एक चांडाल उनकी राह में आ गया। उन्होंने
क्रोधित हो चांडाल को वहाँ से हट जाने के
लिए कहा तो चांडाल बोला- ‘हे मुनि! आप
शरीरों में रहने वाले एक परमात्मा की उपेक्षा
कर रहे हैं, इसलिए आप अब्राह्मण हैं। अतएव मेरे
मार्ग से आप हट जाएँ।’ चांडाल की देववाणी
सुन आचार्य शंकर ने अति प्रभवित होकर
कहा-‘आपने मुझे ज्ञान दिया है, अत: आप मेरे
गुरु हुए।’ यह कहकर आचार्य शंकर ने उन्हें प्रणाम
किया तो चांडाल के स्थान पर शिव तथा
चार देवों के उन्हें दर्शन हुए। काशी में कुछ दिन
रहने के दौरान वे माहिष्मति नगरी (बिहार
का महिषी ) में आचार्य मंडण मिश्र से मिलने
गए। आचार्य मिश्र के घर जो पालतू मैना थी
वह भी वेद मंत्रों का उच्चारण करती थी।
मिश्रजी के घर जाकर आचार्य शंकर ने उन्हें
शास्त्रार्थ में हरा दिया। पति आचार्य
मिश्र को हारता देख पत्नी आचार्य शंकर से
बोलीं- ‘महात्मन्! अभी आपने आधे ही अंग को
जीता है। अपनी युक्तियों से मुझे पराजित
करके ही आप विजयी कहला सकेंगे।’
तब मिश्रजी की पत्नी भारती ने
कामशास्त्र पर प्रश्न करने प्रारम्भ किए। किंतु
आचार्य शंकर तो बाल-ब्रह्मचारी थे, अत:
काम से संबंधित उनके प्रश्नों के उत्तर कहाँ से
देते? इस पर उन्होंने भारती देवी से कुछ दिनों
का समय माँगा तथा पर-काया में प्रवेश कर
उस विषय की सारी जानकारी प्राप्त की।
इसके बाद आचार्य शंकर ने भारती को भी
शास्त्रार्थ में हरा दिया। काशी में प्रवास
के दौरान उन्होंने और भी बड़े-बड़े ज्ञानी
पंडितों को शास्त्रार्थ में परास्त किया
और गुरु पद पर प्रतिष्ठित हुए। अनेक शिष्यों ने
उनसे दीक्षा ग्रहण की। इसके बाद वे धर्म का
प्रचार करने लगे। वेदांत प्रचार में संलग्न रहकर
उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना भी की। अद्वैत
ब्रह्मवादी आचार्य शंकर केवल निर्विशेष
ब्रह्म को सत्य मानते थे और ब्रह्मज्ञान में ही
निमग्न रहते थे। एक बार वे ब्रह्म मुहूर्त में अपने
शिष्यों के साथ एक अति सँकरी गली से
स्नान हेतु मणिकर्णिका घाट जा रहे थे।
रास्ते में एक युवती अपने मृत पति का सिर
गोद में लिए विलाप करती हुई बैठी थी।
आचार्य शंकर के शिष्यों ने उस स्त्री से अपने
पति के शव को हटाकर रास्ता देने की
प्रार्थना की, लेकिन वह स्त्री उसे अनसुना
कर रुदन करती रही। तब स्वयं आचार्य ने उससे
वह शव हटाने का अनुरोध किया। उनका
आग्रह सुनकर वह स्त्री कहने लगी- ‘हे
संन्यासी! आप मुझसे बार-बार यह शव हटाने के
लिए कह रहे हैं। आप इस शव को ही हट जाने के
लिए क्यों नहीं कहते?’ यह सुनकर आचार्य
बोले- ‘हे देवी! आप शोक में कदाचित यह भी
भूल गई कि शव में स्वयं हटने की शक्ति ही नहीं
है।’ स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- ‘महात्मन्
आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही
जगत का कर्ता है। फिर शक्ति के बिना यह
शव क्यों नहीं हट सकता?’ उस स्त्री का ऐसा
गंभीर, ज्ञानमय, रहस्यपूर्ण वाक्य सुनकर
आचार्य वहीं बैठ गए। उन्हें समाधि लग गई।
अंत:चक्षु में उन्होंने देखा- सर्वत्र आद्याशक्ति
महामाया लीला विलाप कर रही हैं। उनका
हृदय अनिवर्चनीय आनंद से भर गया और मुख से
मातृ वंदना की शब्दमयी धारा स्तोत्र बनकर
फूट पड़ी।
अब आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए, जिसमें
अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा
द्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण
साकार की भक्ति की धाराएँ एक साथ
हिलोरें लेने लगीं। उन्होंने अनुभव किया कि
ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा
निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की
भूमि पर सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और
सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने
के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य
सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन
भूमि पर यह भी अनुभव किया कि अद्वैत
ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि
है। उन्होंने ‘ब्रह्मं सत्यं जगन्मिथ्या’ का
उद्घोष भी किया और शिव, पार्वती, गणेश,
विष्णु आदि के भक्तिरसपूर्ण स्तोत्र भी रचे,
‘सौन्दर्य लहरी’, ‘विवेक चूड़ामणि’ जैसे
श्रेष्ठतम ग्रंथों की रचना की। प्रस्थान त्रयी
के भष्य भी लिखे। अपने अकाट्य तर्कों से शैव-
शाक्त-वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त किया और
पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया।
उन्होंने आसेतु हिमालय संपूर्ण भरत की यात्रा
की और चार मठों की स्थापना करके पूरे देश
को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक,
आध्यात्मिक तथा भौगोलिक एकता के
अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया। उन्होंने
समस्त मानव जाति को जीवन्मुक्ति का एक
सूत्र दिया-
दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन:
शांतिमाप्नुयात्।
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान्
विमोच्येत्॥
अर्थात दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें।
शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों
को मुक्त करें। अपना प्रयोजन पूरा होने बाद
तैंतीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने इस नश्वर देह
को छोड़ दिया।

मठ
दर्शन और विचार

शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे। उन्हें
हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित
करने का श्रेय दिया जाता है। एक तरफ
उन्होने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके
सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को
सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होने
जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का
औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया।
सनातन हिन्दू धर्म को दृढ़ आधार प्रदान करने
के लिये उन्होने विरोधी पन्थ के मत को भी
आंशिक तौर पर अंगीकार किया। शंकर के
मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का
प्रभाव माना जाता है। इसी आधार पर उन्हें
प्रछन्न बुद्ध कहा गया है।
शंकर के अद्वैत का दर्शन का सार-
ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमे
जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण
अज्ञान है।
जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है।
जीव की मुक्ति ब्रह्म मे लीन हो जाने मे है।
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक
प्रभाव
रचनाएँ
भज गोविन्दम्
विवेक चूडामणि
भवान्यष्टकम्
इन्हें भी देखें
कुमारिल भट्ट
मण्डन मिश्र
शंकराचार्य
स्वामी माधवाश्रम
जगद्गुरु सुदर्शनाचार्य
[[महानुशासन|मठाम्नाय महानुशासन]
(आद्य शंकराचार्य द्वारा रचित ग्रन्थ जिसमें
मठों के संचालन का विधान है।)

ध्यान दें
1. ↑ इस विषय पर कुछ विवाद है तपस्यानन्द,
स्वामी (२००२). शंकर दिग्विजय . pp. १५-२४.
यह तिथि देते हैं। देखें तिथियाँ
बाहरी कड़िया

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