Friday 25 August 2017

उपनयन संस्कार "यज्ञोपवित्र" क्या हे और क्यों विशाल जोषी संपादित सपूर्ण ज्ञान

उपनयनसंस्कार इस संस्कार में आचार्य शिष्य से कहता है कि -'तू ईश्वर का ब्रह्मचारी है। वस्तुतः ईश्वर ही तेरा आचार्य है। मैं तो उसकी ओर से तेरा आचार्य हूँ।' इस का यह अर्थ है कि आचार्य कहता है कि ईश्वर कृपा से जो ज्ञान मैंने प्राप्त किया है, वही मैं तुझे दूंगा। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है - बालक की शिक्षा पर उसके भावी जीवन का अच्छा या बुराहोना निर्भर था। उसके भावी जीवन पर ही समाज की उन्नति या अवनति निर्भर थी।

गृह्यसूत्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार आठ वर्ष की क्षत्रिय का ग्यारह वर्ष की और वैश्य का बारह वर्ष की अवस्था में किया जाता था। तीव्र बुद्धि वाले ब्राह्मण का पाँच, बलवान क्षत्रिय का छः और कृषि आदिकरने की इच्छा वाले वैश्य का आठ वर्ष की अवस्था में भी यह संस्कार किया जा सकताथा। अधिकतम निर्धारित आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकोंका उपनयन नहीं जाता था।अधिकतम निर्धारण आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों काउपनयन नहीं होता था, उन्हेंव्रात्य कहा जाता था और शिष्ट समाज में उनको निंदनीय समझा जाता था। मनु ने ब्राह्मण बालक के लिए चौबीस वर्ष लिखी है। तीनों वणाç के बालकों की अवस्थाओं में अंतर का कारण यह प्रतीत होता है कि ब्राह्मण बालक के घर में सदा ही पढ़ने- पढ़ाने का वातावरण रहता था। क्षत्रिय के परिवार में इससे कुछ कम और वैश्य के परिवार में उससे भी कम। ब्राह्मण को वैसे भी क्षत्रिय और वैश्य की अपेक्षा अध्ययन में कम समय लगाना पड़ता था।

गृह्यसूत्रों और स्मृतियों में उपनयन संस्कार का पूरा विवरण मिलता है। इस समय बालक एक मेखला धारण करता था, जो तीनों वणाç के लिए अलग- अलग निर्धारित की गई थीं। ब्राह्मण बालक मूंज की, क्षत्रिय धनुष की डोरी की और वैश्य ऊन के धागे की कोंधनी धारण करता था। उनके डंडे भी अलग- अलग लकड़ियों के होते थे। ब्राह्मण ढाक या बेल का, क्षत्रिय बरगद का और वैश्य उदुंबर का डंडाधारण करता था। वह यज्ञोपवीत भी धारण करता था। आचार्य इसके बाद बालक से पूछता था कि क्या वह वास्तव में अध्ययन करने का इच्छुक है और ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा करता है। बालक के इन दोनों बातोंका पूर्ण आश्वासन देने पर ही आचार्य उसे अपना शिष्य बनाता था और कहता था कि तू आज से मेरे कहने के ही अनुसार कार्य करेगा। इसके बाद आचार्य गायत्री मंत्र का अर्थ शिष्य को समझाता था।
इस संस्कार के बाद बालक"द्विज' कहलाता था, क्योंकि इस संस्कार को बालक का दूसरा जन्म समझा जाता था। इस संस्कार के बाद बालक का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ जाता था। इसी कारण इस संस्कार का बहुत महत्व था। बालक को इस बात की अनुभूति कराई जाती थी कि वह अपने परिवार और समुदाय के प्रति अपने कर्तव्य को भली- भांति समझने के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर अभीष्ट योग्यता प्राप्त करें।इसके बाद बालक भिक्षा माँगता था, जिससे कि उसमें अहम्यन्यता न रहे। भिक्षा में प्राप्त भोजन वह गुरु को देता था और गुरु के भोजन कर लेने के बाद उसमें से जो भोजन शेष बचता था, उसे वह स्वयं खाता था।

१ उपनयन संस्कार की पृष्ठभूमि :-"उपनयन' वैदिक परंपरा की अनुयायी आर्य संस्कृति का एक महत्वपूर्ण संस्कार था। यह एक प्रकार का शुद्धिकरण ( संस्करण ) था, जिसे करने से वैदिक वर्णव्यवस्था में व्यक्तिद्विजत्व को प्राप्त होता था ( जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते),अर्थात् वह वेदाध्ययन का अधिकारी हो जाता था। उपनयन का शाब्दिक अर्थ होता है"नैकट्य प्रदान करना', क्योंकि इसके द्वारा वेदाध्ययन का इच्छुक व्यक्ति वेद- शास्रों में पारंगत गुरु/ आचार्य की शरण में जाकर एक विशेष अनुष्ठान के माध्यम से वेदाध्ययन की दीक्षा प्राप्त करता था, अर्थात् वेदाध्ययन के इच्छुक विद्यार्थी को गुरु अपने संरक्षण में लेकर एक विशिष्ट अनुष्ठान के द्वारा उसके शारीरिक एवं जन्म- जन्मांतर दोषों/ कुसंस्कारों का परिमार्जनकर उसमें वेदाध्ययन के लिए आवश्यक गुणों का आधार करता था, उसे एतदर्थ आवश्यक नियमों ( व्रतों ) की शिक्षाप्रदान करता था, इसलिए इस संस्कार को "व्रतबन्ध' भी कहा जाता था।फलतः अपने विद्यार्जन काल में उसे एक नियमबद्ध रुप में त्याग, तपस्या और कठिन अध्यवसाय का जीवन बिताना पड़ता था तथा श्रुतिपरंपरा से वैदिक विद्या में निष्णात होने पर समावर्तन संस्कार के उपरांत अपने भावी जीवन के लिए दिशा- निर्देश ( दीक्षा ) लेकर ही अपने घर आता था। उत्तरवर्ती कालों में यद्यपि वैदिक शिक्षा- पद्धति की परंपरा के विच्छिन्न हो जाने से यह एकपरंपरा का अनुपालन मात्र रह गया है, किंतु पुरातन काल में इसका एक विशेष महत्व था।


उपनयन की अनिवार्यता :-इस संदर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि आप० गृ० सू०(1/1/1/19) के अनुसार संस्कार केवल उन्हीं व्यक्तियों के लिए आवश्यक था, जो कि गुरुजनों के आश्रम में जाकर उनके सान्निध्य में रहकर ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करते हुए गुरुमुख से वैदिक विद्याओं को प्राप्त करना चाहते थे। इसमें प्रत्येक वैदिक शाखा के अध्ययन के लिए उपनयन का पृथक्- पृथक् विधान हुआ करता था। अतः उपनयन उन लोगों के लिए अनिवार्य नहीं था, जो कि गुरुओं के आश्रमों में जाकर उनके नैकट्य में रहते हुए वेदाध्ययन के इच्छुक नहीं होते थे। उपनयन के इस पक्ष का संकेत उस आख्यान सेमिलता है, जिसमें कि आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को यह परामर्श देते हैं कि उसेब्रह्मचर्य ( विद्यार्थी ) का व्रत धारण करना चाहिए, क्योंकि उसके परिवार के सदस्यों ने जन्म के आधार परब्राह्मणत्व ( द्विजत्व ) का दावा नहीं किया है ( छांदोग्य० उप०6.1.9)। अतः वैदिक परंपरा में दीक्षित होने, स्वशाखीय वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरु/ आचार्य के सान्निध्य में रहना तथा वहाँ रहते हुए अध्ययन के साथ- साथ विभिन्न व्रतों का सम्यक् रुप से पालन करना, नित्य प्रातः सायं संध्या- हवन करना, भिक्षाचरण के द्वारा अपना तथा गुरु का पोषण करनाएवं वैदिक विद्याओं में पारंगत होने पर गुरु से अंतिम दीक्षा लेकर वापस आना ही, उपनयन संस्कार का प्रमुख लक्ष्य था।ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त "अंतेवासी' एवं"ब्रह्मचारी' के विवरणों से ज्ञात होता है कि वैदिक कालमें "उपनयन' अर्थात् विद्याध्ययनार्थ गुरु के पास जाने का आनुष्ठानिक कृत्य पर्याप्त सरल था। विद्याध्ययन का इच्छुक ब्रह्मचारी ( शिक्षार्थी ) हाथ में समिधा, काष्ठ लेकर गुरु के आश्रम में जाता था और उनका शिष्य ( ब्रह्मचारी) बनकर शिक्षा प्राप्त करनेकी आकांक्षा व्यक्त करता था। गुरु उसके संबंध में गोत्रादि की जानकारी लेकर उसे शिष्यत्व के लिए स्वीकार कर लेता था। शतपथ ब्राह्मण (11/4/5) में इसका जो रुप प्राप्त होता है, वह कुछ इस प्रकार है - बालक आचार्य के पास जाकर कहता है"मैं ब्रह्मचर्य के लिए आया हूँ' मुझे ब्रहृमचारी हो जाने दीजिए।' इस पर गुरु पूछते हैं - "तुम्हारा नाम क्या है ?' (नाम जानने के उपरांत ) गुरु उसे अपने पास ले लेते हैं (उपनयति) और उसका हाथ अपने हाथ में लेकरकहते हैं - "तुम इंद्र के ब्रह्मचारी हो, अग्नि तुम्हारे गुरु हैं, मैं तुम्हारा गुरु हूँ।' ( गुरु उसका नाम लेकर संबोधित करता है )। गुरु शिक्षा देता है "जल पिओ, काम करो ( अभिप्रेत है गुरु का ) , अग्नि में समिधाएँ डालो,( दिन में ) मत सोओ।' तब वह उसे"सावित्री' का मंत्र देता था।उपनिषद् काल में भी उपनयन संस्कार इतना ही सरल था, इसके उदाहरण पुरातनतम उपनिषदों - छांदोग्य एवं वृहदारण्यक में पाये जाते हैं। छांदोग्य के एक संदर्भ (5/11/7) में आता है कि जब औपमन्यव तथा अन्य चार विद्यार्थी अपने हाथों में समिधाएँ लेकर अश्वपति केकय के पास पहुँचे, तो वे उनसे बिना उपनयन की क्रियाएँ किये ही बात करने लगे। जब सत्यकाम जाबाल ने अपने गोत्र का वास्तविक परिचय दिया, तो गौतम हारिद्रुत ने कहा - हे प्रिय बालक जाओ समिधाएँ ले आओ, मैं तुम्हें दीक्षित कर्रूँगा। तुम सत्य पर स्थिर रहे। (छान्दोग्य4/4/5)। उद्दालक आरुणि ने जो स्वयं ब्रह्मचारी एवं उद्भट विद्वान थे, अपने पुत्र श्वेतकेतु को ब्रह्मचारी के रुप में विद्याध्ययन के लिए गुरु के पास भेजा था, ( छान्दोग्य०6/1/1/1- 2)।

३ आयु निर्धारण :-उपनयन संबंधी आयु निर्धारण के संबंध में यद्यपि वैदिक संहिताओं में कोई उल्लेख नहीं मिलता,किंतु गृह्यसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में इसका स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। तदनुसार वर्णभेद से ब्राह्मण बटुक का उपनयन आठवें वर्ष में, क्षत्रिय का ग्यारवें वर्ष में तथा वैश्य का बारहवें वर्ष में किया जाना चाहिए। पर साथ हीपार० गृ० सू० "यथा मंगलं वा सर्वेषाम्' की व्यवस्था भी देता है। उधर अभिप्राय विशेष के आधार पर मनु इसे क्रमशः पांच, छः तथा आठ वर्ष में किये जाने की व्यवस्था भी देते हैं। आश्व० के अनुसार यह क्रमशः16, 22, 24वर्ष तक भी हो सकता है जैसा कि ऊपर कहा गया है। वैदिक साहित्य में उपनयन का सर्वप्रथम उल्लेख श० ब्रा० (11.5.4) में पाया जाता है। प्रारम्भ में इसका स्वरुप अति संक्षिप्त एवं सरल था। शिक्षार्थी हाथ में कुश एवं समिधाएं लेकर आचार्य के पास जाता था तथा प्रणाम पूर्वक अपने कुल तथा गोत्र का परिचय देकर उनसे अपना शिष्य स्वीकार करने के लिए विनम्र अनुरोध करता था। उसके परिचय तथा उपयुक्त पात्रता से सन्तुष्ट होकर आचार्य उसे अपना शिष्य स्वीकार कर, अपने सान्निध्य में रखने तथा वैदिक ज्ञान में दीक्षित करने का आश्वासन देकर उसे अपने पास रख लेता था, तथा वैदिक विद्याओं मेंपारंगत होने पर उसका समावर्तन संस्कार करके गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने के लिए यथावश्यक दीक्षा देकर उसे अपने घर वापस भेज देता था।

सपूर्ण माहीती विशाल जोषी नखत्राणा कच्छ

Saturday 19 August 2017

सनातन धर्म को जाने क्या हे ब्राम्हण

सावधान !!
       कभी भी वेदवेत्ता  ब्राह्मणों का अपमान् न करें , कभी भी उन्हें दोषदृष्टि से नहीं देखें , मन से भी उनके विरूद्ध न विचार करें । क्योंकि इस पृथ्वी पर साक्षात् भगवान्  विष्णु इनके ही रूप में विचरण कर रहें हैं ।
इनके ब्राह्मतेज से तो तेज के अधिष्ठान अग्नि को भी कष्ट में पडना पडा , जिनके तेज से अथाह गंभीर महार्णव समुद्र को भी खारा हो जाना पडा , उनके ही रूप से द्वेष करके कहाँ जाओगे ।
ब्राह्मणों का ये ही मर्यादा है कि अपने से कोई भी श्रेष्ठ विद्या , तप , या वयोवृद्ध हो , उसको सम्मान दे । और अपनेे को उनके समक्ष अतिन्यून समझें ।
ये ब्राह्मणों के साथ ब्राह्मणों की मर्यादा है । अन्य वर्णों का तो कहना ही नहीं है ।
जो ब्राह्मण व्रत और तपस्या से अपनेे शरीर को तपाते हैं , वेदाध्ययन करते हैं , संतोषवृत्ति से प्राय: रहना चाहते हैं , उनसे द्वेष , हा धिक् ॥ 
ब्राह्मण चाहे दुर्वासा के जैसे हों या वशिष्ठ सदृश ,देवगुरू बृहस्पति के जैसे हों या जडभरत जैसा , सर्वदा ब्रह्म के पर्याय हैं ।
॥ ॐ तत्सत् ब्रम्हार्पणमस्तु ।।

Friday 18 August 2017

प्रश्न - मनुष्य की पूजा की जा सकती है या नहीं ?

उत्तर -  अवश्य  की जा सकती है ,  कोई मनुष्य अपने से श्रेष्ठ है , तो उसकी पूजा अवश्य करनी चाहिये ।  हमारी  सनातन वैदिक परम्परा  है कि अपने से ज्येष्ठ, श्रेष्ठ  , वरिष्ठों, अतिथियों  का पूजन   आसन, अर्घ्य, पाद्य, पत्र, पुष्प, फल , जलादि माध्यमेन  किया जाता है । इसीलिए  श्री भगवान्  इस प्रकार की मनुष्यपूजा को  शारीरिक  तप कहते हैं,  देखें  -

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।। [ श्रीमद्भगवद्गीता १७/१४ ]

एवमेव मनु ने भी कहा है -

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ।। [ मनुस्मृतिः २/१२१]

प्रश्न २ - सन्त की पूजा करनी चाहिए  या नहीं ?

उत्तर  - अवश्य  करनी चाहिए ,  श्री भगवान् आद्य शंकराचार्य  कहते हैं कि क्योंकि विद्वान् सत्यसङ्कल्प होता है , इसलिये सत्यसङ्कल्प होने के कारण वह पूजनीय ही है, -

तस्माद्विदुषः सत्यसङ्कल्पत्वाद्........पूजार्ह एवासौ ।।
[शाङ्करभाष्यम् , मु०उप०३/१/१०]

एवमेव श्रीभगवत्पाद् ने अन्यत्र भी यही  अनुश्रुति  कही है कि जो पुरुष तीनों स्थानों में बतलाई गयी तुल्यता अथवा समानता को निश्चयपूर्वक जानता है , वह महामुनि समस्त प्राणियों का पूजनीय और वन्दनीय होता है  -

त्रिषु धामसु यस्तुल्यं सामान्यं वेत्ति निश्चितः ।
स पूज्यः सर्वभूतानां वन्द्यश्चैव महामुनिः ।।
[ माण्डूक्योपनिषद् ,अ०प्र०गौ०का० -२२]

अतः आचार्य ऐसे सन्तों की पूजा एवं वन्दना को अभिहित करते हुए कहते हैं -

यथोक्तस्थानत्रये यस्तुल्यमुक्तं सामान्यं वेत्त्येवमेवैतदिति निश्चितो  यः स पूज्यो वन्द्यश्च ब्रह्मविल्लोके भवति ।
[ शाङ्करभाष्यम्, माण्डूक्योपनिषद् ,अ०प्र०गौ०का० -२२]

प्रश्न ३ - भौतिक कामनाऐं लेकर सन्त की पूजा  की जा सकती है या नहीं ?

उत्तर  - अवश्य  की जा सकती है।  सकामभावना से की गयी सन्त की पूजा से वे कामनाऐं पूरी  होती हैं ।

मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है  कि  जिसको इस लोक का यश और सुख-सुविधा चाहिए , वह  ज्ञानवान् का पूजन करे अथवा  मृत्यु  के बाद किसी ऊँचे लोक में जाना हो तब भी  सन्त की पूजा करे , जैसा कि  -

//वह विशुद्धचित्त आत्मवेत्ता मन से जिस-जिस लोक की भावना करता है और जिन-जिन भोगों को चाहता है, वह उसी-उसी लोक और उन्हीं-उन्हीं भोगों को प्राप्त कर लेता है। इसलिए ऐश्वर्य की इच्छा करने वाला पुरुष आत्मज्ञानी की पूजा करे ।//

यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान्।
तं तं लोकं जयते तांश्च कामांस्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः।।
[ मुण्डकोपनिषद् ३।१।१०]

जब भौतिक कामनाएं सन्तों की पूजा से पूर्ण होती हैं , तो आध्यात्मिक कामनाओं का तो कहना ही क्या ,  जैसा कि महामुनि पतञ्जलि    योगदर्शन , समाधिपाद के ३७ वें सूत्र में कहते हैं कि  रागरहित चित्त का विषय करने से  चित्त को एकाग्रता की प्राप्ति होती है -

वीतरागविषयं वा चित्तम्  । [ योगदर्शनम् १/३७]

वीतराग त्यागात्मा  योगियों का चित्त रागरहित होता है , ऐसे  अनासक्त महात्माओं के विरक्त चित्त का ध्यान करने से  चित्त एकाग्र होता है , जिनका चित्त एकाग्र होता है , वही अपने जीवन में  उत्कृष्ट  आध्यात्मिक लक्ष्य  को  प्राप्त  करते हैं ।

।। जय श्री  राम ।।              

Thursday 17 August 2017

मेरे गुरुदेव उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर एवं पश्चिमाम्नाय द्वारकाशारदापीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामीश्री: स्वरूपानन्द सरस्वतीजी महाराज का परिचय एवम् मेरे जीवन का श्रेष्ठ समय विशाल जोषी

सरस्वतीशंकराचार्य स्वामीस्वरूपानंद सरस्वतीमहाराज (जन्म: २ सितम्बर १९२४) एकहिन्दूअध्यात्मिक गुरु,स्वतन्त्रता सेनानीहैं।

[1]जीवन परिचयस्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म २ सितम्बर १९२४ को मध्य प्रदेश राज्य केसिवनीजिले मेंजबलपुरके पास दिघोरी गांव मेंब्राह्मणपरिवार में पिता श्री धनपति उपाध्याय और मां श्रीमती गिरिजा देवी के यहां हुआ। माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा। नौ वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ कर धर्म यात्रायें प्रारम्भ कर दी थीं। इस दौरान वहकाशीपहुंचे और यहांउन्होंने ब्रह्मलीन श्रीस्वामी करपात्री महाराजवेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली। यह वह समय था जबभारतकोअंग्रेजोंसे मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी। जब १९४२ में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा तो वह भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और १९ साल की उम्र में वह 'क्रांतिकारी साधु' के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसी दौरान उन्होंनेवाराणसीकी जेल में नौ औरमध्यप्रदेशकी जेलमें छह महीने की सजा भी काटी। वेकरपात्री महाराजकी राजनीतिक डालराम राज्य परिषदके अध्यक्ष भी थे। १९५० में वे दंडी संन्यासी बनाये गए और १९८१ में शंकराचार्य की उपाधि मिली। १९५० में ज्योतिष्पीठ के ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे।
आज वः उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर एवं पश्चिमाम्नाय द्वारकाशारदापीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामीश्री हे।
 

१९ ०७ २०१७ में द्वारका सारदा मठ में भगवान्
श्री द्वारकाशारदापीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामीश्री: स्वरूपानन्द सरस्वतीजी महाराज के पास गुरुमंत्र लिया और दीक्षा ली यह मेरे जीवन का सबसे श्रेष्ठ समय था

जगतगुरु संकराचार्य के चार पीठ और उसकी महत्वता *विशाल राजेंद्र जोषी*

चार मठ निम्नलिखित हैं:
*.उत्तरामण्य मठ या उत्तर मठ,ज्योतिर्मठ जो कि जोशीमठमें स्थित है।

*.पूर्वामण्य मठ या पूर्वी मठ,गोवर्धन मठ जो कि पुरीमें स्थित है।

*.दक्षिणामण्य मठ या दक्षिणी मठ,शृंगेरी शारदा पीठजो कि शृंगेरीमें स्थित है।

*.पश्चिमामण्य मठ या पश्चिमी मठ,द्वारिका पीठ जो कि द्वारिका में स्थित है।

इन चार मठों के अतिरिक्त भी भारतमें कई अन्य जगह शंकराचार्य पद लगाने वाले मठ मिलते हैं। यह इस प्रकार हुआ कि कुछ शंकराचार्यों के शिष्यों ने अपने मठ स्थापित कर लिये एवं अपने नाम के आगे भी शंकराचार्य उपाधि लगाने लगे। परन्तु असली शंकराचार्य उपरोक्त चारों मठोंपर आसीन को ही माना जाता है।

.आदि शंकराचार्य ने मुख्य चार ही मठो की स्थापना की थी .
ज्योतिर्मठ
*.गोवर्धन मठ
*.शृंगेरी शारदा पीठ
*.द्वारिका पीठ

हेतु केवल इतना ही की कोई भी हिन्दू को सनातन धर्म का कोई भी प्रश्न हो तो उसका उतार पूरी संतुस्था के साथ मिल सके और लोग अंध श्रद्धा में न फसे

भारत में हिन्दू संप्रदाय की सबसे उची पदवी यानी के भगवन श्री संकराचार्य

संकराचार्य को वेद उपनिषद् एवम् सनातन धर्म का हर इक ग्रन्थ कंठस्त होना चाहिए और सभी सास्त्रो का पठन एवम् सास्त्र का ज्ञान होना चाहिए तब वः जगतगुरु कहलाते हे

                                
परम पूज्यपाद अनंतश्रीविभूषित
उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर एवं पश्चिमाम्नाय द्वारकाशारदापीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामीश्री: स्वरूपानन्द सरस्वतीजी महाराज
का शिष्य  "विशाल राजेंद्र जोषी"