उपनयनसंस्कार इस संस्कार में आचार्य शिष्य से कहता है कि -'तू ईश्वर का ब्रह्मचारी है। वस्तुतः ईश्वर ही तेरा आचार्य है। मैं तो उसकी ओर से तेरा आचार्य हूँ।' इस का यह अर्थ है कि आचार्य कहता है कि ईश्वर कृपा से जो ज्ञान मैंने प्राप्त किया है, वही मैं तुझे दूंगा। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है - बालक की शिक्षा पर उसके भावी जीवन का अच्छा या बुराहोना निर्भर था। उसके भावी जीवन पर ही समाज की उन्नति या अवनति निर्भर थी।
गृह्यसूत्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार आठ वर्ष की क्षत्रिय का ग्यारह वर्ष की और वैश्य का बारह वर्ष की अवस्था में किया जाता था। तीव्र बुद्धि वाले ब्राह्मण का पाँच, बलवान क्षत्रिय का छः और कृषि आदिकरने की इच्छा वाले वैश्य का आठ वर्ष की अवस्था में भी यह संस्कार किया जा सकताथा। अधिकतम निर्धारित आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकोंका उपनयन नहीं जाता था।अधिकतम निर्धारण आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों काउपनयन नहीं होता था, उन्हेंव्रात्य कहा जाता था और शिष्ट समाज में उनको निंदनीय समझा जाता था। मनु ने ब्राह्मण बालक के लिए चौबीस वर्ष लिखी है। तीनों वणाç के बालकों की अवस्थाओं में अंतर का कारण यह प्रतीत होता है कि ब्राह्मण बालक के घर में सदा ही पढ़ने- पढ़ाने का वातावरण रहता था। क्षत्रिय के परिवार में इससे कुछ कम और वैश्य के परिवार में उससे भी कम। ब्राह्मण को वैसे भी क्षत्रिय और वैश्य की अपेक्षा अध्ययन में कम समय लगाना पड़ता था।
गृह्यसूत्रों और स्मृतियों में उपनयन संस्कार का पूरा विवरण मिलता है। इस समय बालक एक मेखला धारण करता था, जो तीनों वणाç के लिए अलग- अलग निर्धारित की गई थीं। ब्राह्मण बालक मूंज की, क्षत्रिय धनुष की डोरी की और वैश्य ऊन के धागे की कोंधनी धारण करता था। उनके डंडे भी अलग- अलग लकड़ियों के होते थे। ब्राह्मण ढाक या बेल का, क्षत्रिय बरगद का और वैश्य उदुंबर का डंडाधारण करता था। वह यज्ञोपवीत भी धारण करता था। आचार्य इसके बाद बालक से पूछता था कि क्या वह वास्तव में अध्ययन करने का इच्छुक है और ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा करता है। बालक के इन दोनों बातोंका पूर्ण आश्वासन देने पर ही आचार्य उसे अपना शिष्य बनाता था और कहता था कि तू आज से मेरे कहने के ही अनुसार कार्य करेगा। इसके बाद आचार्य गायत्री मंत्र का अर्थ शिष्य को समझाता था।
इस संस्कार के बाद बालक"द्विज' कहलाता था, क्योंकि इस संस्कार को बालक का दूसरा जन्म समझा जाता था। इस संस्कार के बाद बालक का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ जाता था। इसी कारण इस संस्कार का बहुत महत्व था। बालक को इस बात की अनुभूति कराई जाती थी कि वह अपने परिवार और समुदाय के प्रति अपने कर्तव्य को भली- भांति समझने के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर अभीष्ट योग्यता प्राप्त करें।इसके बाद बालक भिक्षा माँगता था, जिससे कि उसमें अहम्यन्यता न रहे। भिक्षा में प्राप्त भोजन वह गुरु को देता था और गुरु के भोजन कर लेने के बाद उसमें से जो भोजन शेष बचता था, उसे वह स्वयं खाता था।
१ उपनयन संस्कार की पृष्ठभूमि :-"उपनयन' वैदिक परंपरा की अनुयायी आर्य संस्कृति का एक महत्वपूर्ण संस्कार था। यह एक प्रकार का शुद्धिकरण ( संस्करण ) था, जिसे करने से वैदिक वर्णव्यवस्था में व्यक्तिद्विजत्व को प्राप्त होता था ( जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते),अर्थात् वह वेदाध्ययन का अधिकारी हो जाता था। उपनयन का शाब्दिक अर्थ होता है"नैकट्य प्रदान करना', क्योंकि इसके द्वारा वेदाध्ययन का इच्छुक व्यक्ति वेद- शास्रों में पारंगत गुरु/ आचार्य की शरण में जाकर एक विशेष अनुष्ठान के माध्यम से वेदाध्ययन की दीक्षा प्राप्त करता था, अर्थात् वेदाध्ययन के इच्छुक विद्यार्थी को गुरु अपने संरक्षण में लेकर एक विशिष्ट अनुष्ठान के द्वारा उसके शारीरिक एवं जन्म- जन्मांतर दोषों/ कुसंस्कारों का परिमार्जनकर उसमें वेदाध्ययन के लिए आवश्यक गुणों का आधार करता था, उसे एतदर्थ आवश्यक नियमों ( व्रतों ) की शिक्षाप्रदान करता था, इसलिए इस संस्कार को "व्रतबन्ध' भी कहा जाता था।फलतः अपने विद्यार्जन काल में उसे एक नियमबद्ध रुप में त्याग, तपस्या और कठिन अध्यवसाय का जीवन बिताना पड़ता था तथा श्रुतिपरंपरा से वैदिक विद्या में निष्णात होने पर समावर्तन संस्कार के उपरांत अपने भावी जीवन के लिए दिशा- निर्देश ( दीक्षा ) लेकर ही अपने घर आता था। उत्तरवर्ती कालों में यद्यपि वैदिक शिक्षा- पद्धति की परंपरा के विच्छिन्न हो जाने से यह एकपरंपरा का अनुपालन मात्र रह गया है, किंतु पुरातन काल में इसका एक विशेष महत्व था।
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उपनयन की अनिवार्यता :-इस संदर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि आप० गृ० सू०(1/1/1/19) के अनुसार संस्कार केवल उन्हीं व्यक्तियों के लिए आवश्यक था, जो कि गुरुजनों के आश्रम में जाकर उनके सान्निध्य में रहकर ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करते हुए गुरुमुख से वैदिक विद्याओं को प्राप्त करना चाहते थे। इसमें प्रत्येक वैदिक शाखा के अध्ययन के लिए उपनयन का पृथक्- पृथक् विधान हुआ करता था। अतः उपनयन उन लोगों के लिए अनिवार्य नहीं था, जो कि गुरुओं के आश्रमों में जाकर उनके नैकट्य में रहते हुए वेदाध्ययन के इच्छुक नहीं होते थे। उपनयन के इस पक्ष का संकेत उस आख्यान सेमिलता है, जिसमें कि आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को यह परामर्श देते हैं कि उसेब्रह्मचर्य ( विद्यार्थी ) का व्रत धारण करना चाहिए, क्योंकि उसके परिवार के सदस्यों ने जन्म के आधार परब्राह्मणत्व ( द्विजत्व ) का दावा नहीं किया है ( छांदोग्य० उप०6.1.9)। अतः वैदिक परंपरा में दीक्षित होने, स्वशाखीय वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरु/ आचार्य के सान्निध्य में रहना तथा वहाँ रहते हुए अध्ययन के साथ- साथ विभिन्न व्रतों का सम्यक् रुप से पालन करना, नित्य प्रातः सायं संध्या- हवन करना, भिक्षाचरण के द्वारा अपना तथा गुरु का पोषण करनाएवं वैदिक विद्याओं में पारंगत होने पर गुरु से अंतिम दीक्षा लेकर वापस आना ही, उपनयन संस्कार का प्रमुख लक्ष्य था।ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त "अंतेवासी' एवं"ब्रह्मचारी' के विवरणों से ज्ञात होता है कि वैदिक कालमें "उपनयन' अर्थात् विद्याध्ययनार्थ गुरु के पास जाने का आनुष्ठानिक कृत्य पर्याप्त सरल था। विद्याध्ययन का इच्छुक ब्रह्मचारी ( शिक्षार्थी ) हाथ में समिधा, काष्ठ लेकर गुरु के आश्रम में जाता था और उनका शिष्य ( ब्रह्मचारी) बनकर शिक्षा प्राप्त करनेकी आकांक्षा व्यक्त करता था। गुरु उसके संबंध में गोत्रादि की जानकारी लेकर उसे शिष्यत्व के लिए स्वीकार कर लेता था। शतपथ ब्राह्मण (11/4/5) में इसका जो रुप प्राप्त होता है, वह कुछ इस प्रकार है - बालक आचार्य के पास जाकर कहता है"मैं ब्रह्मचर्य के लिए आया हूँ' मुझे ब्रहृमचारी हो जाने दीजिए।' इस पर गुरु पूछते हैं - "तुम्हारा नाम क्या है ?' (नाम जानने के उपरांत ) गुरु उसे अपने पास ले लेते हैं (उपनयति) और उसका हाथ अपने हाथ में लेकरकहते हैं - "तुम इंद्र के ब्रह्मचारी हो, अग्नि तुम्हारे गुरु हैं, मैं तुम्हारा गुरु हूँ।' ( गुरु उसका नाम लेकर संबोधित करता है )। गुरु शिक्षा देता है "जल पिओ, काम करो ( अभिप्रेत है गुरु का ) , अग्नि में समिधाएँ डालो,( दिन में ) मत सोओ।' तब वह उसे"सावित्री' का मंत्र देता था।उपनिषद् काल में भी उपनयन संस्कार इतना ही सरल था, इसके उदाहरण पुरातनतम उपनिषदों - छांदोग्य एवं वृहदारण्यक में पाये जाते हैं। छांदोग्य के एक संदर्भ (5/11/7) में आता है कि जब औपमन्यव तथा अन्य चार विद्यार्थी अपने हाथों में समिधाएँ लेकर अश्वपति केकय के पास पहुँचे, तो वे उनसे बिना उपनयन की क्रियाएँ किये ही बात करने लगे। जब सत्यकाम जाबाल ने अपने गोत्र का वास्तविक परिचय दिया, तो गौतम हारिद्रुत ने कहा - हे प्रिय बालक जाओ समिधाएँ ले आओ, मैं तुम्हें दीक्षित कर्रूँगा। तुम सत्य पर स्थिर रहे। (छान्दोग्य4/4/5)। उद्दालक आरुणि ने जो स्वयं ब्रह्मचारी एवं उद्भट विद्वान थे, अपने पुत्र श्वेतकेतु को ब्रह्मचारी के रुप में विद्याध्ययन के लिए गुरु के पास भेजा था, ( छान्दोग्य०6/1/1/1- 2)।
३ आयु निर्धारण :-उपनयन संबंधी आयु निर्धारण के संबंध में यद्यपि वैदिक संहिताओं में कोई उल्लेख नहीं मिलता,किंतु गृह्यसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में इसका स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। तदनुसार वर्णभेद से ब्राह्मण बटुक का उपनयन आठवें वर्ष में, क्षत्रिय का ग्यारवें वर्ष में तथा वैश्य का बारहवें वर्ष में किया जाना चाहिए। पर साथ हीपार० गृ० सू० "यथा मंगलं वा सर्वेषाम्' की व्यवस्था भी देता है। उधर अभिप्राय विशेष के आधार पर मनु इसे क्रमशः पांच, छः तथा आठ वर्ष में किये जाने की व्यवस्था भी देते हैं। आश्व० के अनुसार यह क्रमशः16, 22, 24वर्ष तक भी हो सकता है जैसा कि ऊपर कहा गया है। वैदिक साहित्य में उपनयन का सर्वप्रथम उल्लेख श० ब्रा० (11.5.4) में पाया जाता है। प्रारम्भ में इसका स्वरुप अति संक्षिप्त एवं सरल था। शिक्षार्थी हाथ में कुश एवं समिधाएं लेकर आचार्य के पास जाता था तथा प्रणाम पूर्वक अपने कुल तथा गोत्र का परिचय देकर उनसे अपना शिष्य स्वीकार करने के लिए विनम्र अनुरोध करता था। उसके परिचय तथा उपयुक्त पात्रता से सन्तुष्ट होकर आचार्य उसे अपना शिष्य स्वीकार कर, अपने सान्निध्य में रखने तथा वैदिक ज्ञान में दीक्षित करने का आश्वासन देकर उसे अपने पास रख लेता था, तथा वैदिक विद्याओं मेंपारंगत होने पर उसका समावर्तन संस्कार करके गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने के लिए यथावश्यक दीक्षा देकर उसे अपने घर वापस भेज देता था।
सपूर्ण माहीती विशाल जोषी नखत्राणा कच्छ