Sunday 26 June 2016

शारीरिक सम्बन्ध से ऊर्जा स्थानांतरित होती है , हजार बार सोचें शारीरिक सम्बन्ध बनाने के पहले - एक हेरतंगेस सनसना लेख -जीतेन्द्र नारायण मिश्र जी का लेख

प्रकृति में विकास और संतति उत्पत्ति का माध्यम शारीरिक सम्बन्ध है |सभी जीवों में यह होता है ,वनस्पतियों में इसकी प्रकृति भिन्न होती है किन्तु होता वहां भी है बीजारोपण ही ,,भले परागों के ही रूप में क्यों न हो |इस प्रक्रिया में जंतुओं में उत्तेजना और आनंद की अनुभूति होती है ,जिसे पाने अथवा एकाधिकार के लिए आपसी संघर्ष भी होते हैं |मनुष्य में यह देखने में और व्यवहार में एक सामान्य प्रक्रिया है जो संतति वृद्धि का माध्यम है |परन्तु इसमें बहुत बड़े बड़े रहस्य भी हैं और बहुत बड़ी बड़ी क्रियाएं भी होती हैं ,जो सम्बंधित व्यक्तियों को जीवन भर प्रभावित करती है |
देखने-समझने में मामूली सा लगने वाला आपसी शारीरिक सम्बन्ध पूरे जीवन अपना अच्छा अथवा बुरा प्रभाव डालता ही रहता है ,भले एक बार ही किसी से शारीरिक सम्बन्ध क्यों न बने हों | यह दो ऊर्जा संरचनाओं ,ऊर्जा धाराओं के बीच की आपसी प्रतिक्रया भी होती है ,दो चक्रों की उर्जाओं का आपसी सम्बन्ध भी होता है |बहुत लोग असहमत हो सकते हैं ,बहुत लोगों को मालूम नहीं हो सकता ,बहुत लोगों ने कभी सोचा ही नहीं होगा किन्तु यह अकाट्य सत्य है की यह आपसी सम्बन्ध ऊर्जा स्थानान्तरण करते हैं एक से दुसरे में ,यहाँ तक की बाद में भी इनमे ऊर्जा स्थानान्तरण होता रहता है ,बिना सम्बन्ध के भी |
इसकी एक तकनिकी है ,इसका एक रहस्य है ,जो ब्रह्मांडीय ऊर्जा धारा से सम्बंधित है |इसे हमारे ऋषि-मुनि जानते थे ,इसीलिए उन्होंने कईयों से शारीरिक सम्बन्ध रखने की वर्जना की ,भिन्न जातियों ,भिन्न लोगों से सम्बन्ध रखने को मना किया ।
हिन्दू धर्म सहित कई धर्मो में पत्नी को अर्धांगिनी माना जाता है ,क्यों जबकि वह खून के रिश्ते में भी नहीं होती |इसलिए ,क्योकि वह आधा हिस्सा [रिनात्मक] होती है जो पति [धनात्मक] से मिलकर पूर्णता प्रदान करती है |इसका मूल कारण इनका आपसी शारीरिक सम्बन्ध ही होता है ,अन्यथा वैवाहिक व्यवस्था तो एक कृत्रिम सामाजिक व्यवस्था है सामाजिक उश्रीन्खलता रोकने का ,और यह सभी धर्मों में सामान भी नहीं है न विधियाँ ही समान है |मन्त्रों से अथवा परम्पराओं-रीती-रिवाजों से रिश्ते नहीं बनते और न ही वह अर्धांगिनी बनती है |
यही वह सूत्र है जिसके बल पर उसे पति के पुण्य का आधा फल प्राप्त होता है और पति को उसके पुण्य का |वह सभी धर्म-कर्म ,पाप-पुण्य की भागीदार होती है ,इसलिए उसे अर्धांगिनी कहा जाता है |
सोचने वाली बात है कि ,जब पत्नी से शारीरिक सम्बन्ध रखने मात्र से उसे आपका आधा पाप-पुण्य मिल जाता है ,तो जिस अन्य स्त्री या पुरुष से आप सम्बन्ध रखेंगे ,क्या उसे आपका पाप-पुण्य ,धर्म कर्म नहीं मिलेगा |जरुर मिलेगा इसका सूत्र और तकनिकी होता है |
यह सब ऊर्जा का स्थानान्तरण है ,यह ऊर्जा का आपसी रति है ,यह उर्जाओं का आपसी सम्बन्ध है ,जो मूलाधार से सबन्धित होकर आपसी आदान-प्रदान का माध्यम बन जाता है |यह भी भ्रम नहीं होना चाहिए की एक बार का सम्बन्ध से कुछ नहीं होता |एक बार का सम्बन्ध जीवन भर ऊर्जा स्थानान्तरण करता है ,भले उसकी मात्रा कम हो ,किन्तु होगी जरुर |
भले आप किसी वेश्या या पतित से सम्बन्ध बनाएं किन्तु तब भी ऊर्जा का स्थानान्तरण होगा |आपमें सकारात्मक ऊर्जा है तो वह उसकी तरफ और उसमे नकारात्मक ऊर्जा है तो आपकी तरफ आएगी भी और आपको प्रभावित भी करेगी |यह तत्काल समझ में नहीं आता ,क्योकि आपमें नकारात्मकता या सकारात्मकता अधिक हो सकती है जो क्रमशः विपरीत उर्जा आने से क्षरित होती है |अगर नकारात्मकता और सकारात्मकता का संतुलन बराबर है और आपने किसी नकारामक ऊर्जा से ग्रस्त व्यक्ति से सम्बन्ध बना लिए तो आने वाली नकारात्मकता आपमें अधिक हो जायेगी और आपका संतुलन बिगड़ जाएगा ,फलतः आप कष्ट उठाने लगेंगे ,,फिर भी चूंकि आपको इस रहस्य का पता नहीं है इसलिए आप इस कारण को न जान पायेंगे और न मानेंगे |किन्तु होता ऐसा ही है |
जब आप किसी से शारीरिक सम्बन्ध को उत्सुक होते हैं ,तब आपने कामुकता जागती है और आपका मूलाधार अधिक सक्रिय हो अधिक तरंगें उत्पादित करता है |
जब आप उस व्यक्ति या स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध बना रहे होते हैं तो आपके ऊर्जा चक्र और ऊर्जा धाराओं का सम्बन्ध उसकी ऊर्जा धाराओं और चक्रों से हो जाता है ,क्योकि प्रकृति का प्रत्येक जीव एक आभामंडल से युक्त होता है जिसका सम्बन्ध चक्रों से होता है |आपसी समबन्ध में यह सम्बन्ध बनने से दोनों शरीरों में उपस्थित धनात्मक अथवा रिनात्मक उर्जाओं का आदान-प्रदान इस सेतु से होने लगता है |
इसमें मानसिक संपर्क इसे और बढ़ा देता है |सम्बन्ध समाप्त होने के बाद भी यह घटना अवचेतन से जुडी रहती है ,भले आप प्रत्यक्ष भूल जाएँ ,साथ ही बने हुए ऊर्जा धाराओं के सम्बन्ध भी कभी समाप्त पूरी तरह नहीं होते |
यह ऊर्जा विज्ञान है ,जिसे सभी नहीं समझ पाते |ऐसे में जब कभी आपमें जिस प्रकार की ऊर्जा बढ़ेगी वह स्थानांतरित स्वयमेव होती रहेगी |मात्रा भले कम हो पर होगी जरुर |मात्रा का निर्धारण सम्बंधित व्यक्ति से मानसिक जुड़ाव और संबन्धिन की मात्रा पर निर्भर करता है |
इसी तरह जो आपके खून के रिश्ते में हैं वह भी आपके पाप-पुण्य पाते हैं ,क्योकि उनमे आपस में सम्बन्ध होते हैं |यही कारण है की कहा जाता है की पुत्र द्वारा किये धर्म से माता-पिता अथवा बंधू-बांधव स्वयं इस जगत के चक्रों से मुक्त हो सकते हैं |यही वह कारण है की साधू-महात्मा बचपन में घर त्याग को प्राथमिकता देते हैं ,कि न अब और सम्बन्ध बनेगे न ऊर्जा स्थानान्तरण होगा |जो पहले से हैं उनमे तो होता ही होता है |अब और नए सम्बन्ध यथा पत्नी ,पुत्र ,पुत्री होने पर उनमे भी प्राप्त की जा रही ऊर्जा का स्थानान्तरण होगा और परम लक्ष्य के लिए अधिक श्रम करना होगा |पत्नी तो सीधे सर्वाधिक ऊर्जा प्राप्त करने लगती है ,संताने भी अति नजदीकी जुडी होने से ऊर्जा स्थानान्तरण पाती है |
यही वह सूत्र है ,जिसके कारण भैरवी साधना में भैरवी [साधिका] से भैरव [साधक] में ऊर्जा का स्थानान्तरण होता है |जब साधना की जाती है तो शक्ति या ऊर्जा का पदार्पण भैरवी में ही होता है |
इसका कारण होता है की साधिका के ऋणात्मक प्रकृति का होने से उसकी और उर्जा या शक्ति शीघ्र आकर्षित होती है ,क्योकि शक्ति की प्रकृति भी ऋणात्मक ही होती है और तंत्र साधना में शक्ति की साधना की जाती है |
भैरव की प्रकृति धनात्मक होने से उसमे शक्ति आने में अधिक प्रयास और श्रम करना पड़ता है |जब शक्ति या उर्जा साधिका में प्रवेश करती है तो वह मूलाधार के सम्बन्ध से ही साधक को प्राप्त होती है और साधक को सिद्धि और लक्ष्य प्राप्त होता है |साधिका सहायिक होने पर भी स्वयं सिद्ध होती जाती है ,क्योकि जिस भी ऊर्जा का आह्वान साधक करता है वह पहले साधिका से ही साधक को प्राप्त होती है जिससे वह खुद सिद्ध होती जाती है ,जबकि समस्त प्रयास साधक के होते हैं |यह सूत्र बताता है की शारीरिक सम्बन्ध और आपसी ऊर्जा धाराओं की क्रिया से ऊर्जा स्थानान्तरण होता है |
आप अपने पत्नी या पति के अतिरिक्त किसी अन्य से शारीरिक सम्बन्ध बनाते हैं तो आपके अन्दर उपस्थित ऊर्जा [सकारात्मक या नकारात्मक ]उस व्यक्ति तक भी स्थानांतरित होती है |मान लीजिये आपने किसी पुण्य या साधना से या किसी अच्छे कर्म से १००% लाभदायक उर्जा प्राप्त की |आप अपनी पत्नी से सम्बन्ध रखते हैं ,इस तरह पत्नी को आधा उसका मिल जाएगा ,किन्तु आप किसी अन्य से भी शारीरिक सम्बन्ध रखते हैं तो तीनो में वह ऊर्जा ३३ -३३% विभाजित हो जाएगी और उन्हें मिल जायेगी |
यदि आपने कईयों से एक ही समय में सम्बन्ध रखे हैं तो प्राप्त या पहले से उपस्थित ऊर्जा उतने ही हिस्सों में बट जाएगी और आपको लेकर जितने लोग शारीरिक सम्बन्ध के दायरे में होंगे उतने हिस्से हो आपको एक हिस्सा मिल जायेगा बस |यहाँ कहावत हो जायेगी मेहनत की १०० के लिए मिला १० |
जब आप किसी से शारीरिक सम्बन्ध कुछ दिन रखते है [जैसे विवाह पूर्व अथवा बाद में ] और फिर वह सम्बन्ध टूट जाता है तब भी ऊर्जा स्थानान्तरण रुकता नहीं ,,हाँ मात्रा जरुर कम हो जाती है ,पर बिलकुल समाप्त नहीं होती ,क्योकि आपके सम्बन्ध को आपका अवचेतन याद रखता है और जो सम्बन्ध उस समय बने होते हैं वह अदृश्य ऊर्जा धाराओं में हमेशा के लिए एक समबन्ध बना देते हैं |
ऐसे में आप जीवन भर जो कुछ ऊर्जा अर्जित करेंगे वह उस व्यक्ति को खुद थोडा ही सही पर मिलता जरुर रहेगा और आपमें से कमी होती जरुर रहेगी |आप द्वारा किये गए किसी धर्म-कर्म ,पूजा -साधना का पूर्ण परिणाम या साकारात्मक ऊर्जा आपको पूर्ण रूपें नहीं मिलेगा ,न आप जिसके लिए करेंगे उसे ही पूरा मिलेगा |
इस मामले में चरित्रहीन और गलत व्यक्ति लाभदायक स्थिति में होते हैं |वह कईयों से सम्बन्ध झूठ-सच के सहारे बनाते हैं |स्थिर कहीं नहीं रहते और व्यक्ति बदलते रहते हैं |ऐसे में होना तो यह चाहिए की उनका पतन और नुकसान हो |पर कभी कभी ही ऐसा होता है ,अति नकारात्मकता के कारण अन्यथा ,जिनसे जिनसे उन्होंने सम्बन्ध बनाये हैं ,उनके पुण्य प्रभाव और सकारात्मक ऊर्जा प्राप्ति का प्रयास इन्हें भी अपने आप लाभदायक ऊर्जा दिलाता रहता है |
इस तरह ये पाप करते हुए भी नकारात्मकता में कमी पाते रहते है |नुक्सान सत्कर्मी अथवा सकारात्मक ऊर्जा के लिए प्रयास रत अथवा सुख संमृद्धि-शान्ति की कामना वाले का होता है ,उसकी एक भूल उसे हमेशा के लिए सकारात्मक ऊर्जा में कमी देती ही रहती है , फल उसे कभी नहीं मिल पाता अगर उसने कभी अन्य किसी से सम्बन्ध बना लिए हैं ,भले बाद में वह सुधर गया हो |उसे लक्ष्य प्राप्ति के लिए कई गुना अधिक प्रयास करना पड़ जाता है |किसी साधक -सन्यासी -साधू आदि से कोई अगर सम्बन्ध बना लेता है तो पहले तो तत्काल उसके नकारात्मक ऊर्जा का क्षय हो जाता है ,उसके बाद भी जब भी वह साधक साधना से ऊर्जा प्राप्त करेगा ,उसका कुछ अंश अवश्य सम्बन्ध बनाने वाली को मिलता रहेगा |नुक्सान सिर्फ साधक या ऊर्जा प्राप्ति का प्रयास करने वाले का होता है |
इसलिए हमेशा इस दृष्टि से भी देखना चाहिए की आपकी एक गलती आपको जीवन भर कुछ कमी देती रहेगी |कभी आप पूर्ण सकारात्मक ऊर्जा अपने प्रयास का नहीं पायेंगे |यदि वह व्यक्ति जिससे आपने सम्बन्ध बनाए हैं नकारात्मक ऊर्जा से ग्रस्त है तो आप बिना कुछ किये नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव में आयेंगे |यदि यह अधिक हुआ और संतुलन बिगड़ा तो आपका पतन होने लगेगा |इसलिए कभी किसी अन्य से या यहाँ वहां शारीरिक सम्बन्ध न बनायें |
विवाह पूर्व ऐसे संबंधों से दूर रहें ,अन्यथा बाद में पति या पत्नी को बहुत चाहने और पूर्ण समर्पित होने के बाद भी आप उसे अपने धर्म-कर्म का पूर्ण परिणाम नहीं दिला सकेंगे |बिना चाहे आपकी ऊर्जा कहीं और भी स्थानांतरित होती रहेगी ।
....--जीतेन्द्र नारायण मिश्र
Mahavidya Sadhak bij Tantra -Jyotish
Varanasi .....
हर हर महादेव !!!

Sunday 12 June 2016

क्या रावण जगद्जननी मां जानकी का हरण कर सकता था ??? जी नहीं हरण तो बहुत दूर की बात है, उन जैसी पतिव्रता नारी को छूना तक असम्भव था। जानिये रामायण का इक रोचक प्रसंग मेरे एवम् वैज्ञानिक दृस्टि से विशाल जोषी

उनके सतीत्व में इतना बल था कि अगर कोई भी उनको
स्पर्श तक करता तो तत्काल भस्म हो जाता।

रावण ने जिनका हरण किया वो वास्तविक माता सीता ना
होकर उनकी प्रतिकृति छाया मात्र थी।
इसके पीछे एक गूढ रहस्य है, जिसका महर्षि बाल्मीकि कृत
रामायण व गोस्वामी तुलसी कृत रामचरित मानस में स्पष्ट
वर्णन है...

पंचवटी पर निवास के समय जब श्री लक्ष्मण वन में लकडी
लेने गये थे तो प्रभु श्री राम ने माता जानकी से कहा-

"दोहा- लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद॥२३॥

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला।
मैं कछु करबि ललित नरलीला॥

तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा।
जौ लगि करौं निसाचर नासा॥

जबहिं राम सब कहा बखानी।
प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥

निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता।
तैसइ सील रुप सुबिनीता॥

लछिमनहूँ यह मरमु न जाना।
जो कछु चरित रचा भगवाना॥
-----(अरण्य कांड)

अर्थात- लक्ष्मण जी जब कंद मूल फल लेने गए तब प्रभु
श्री राम माता सीता से कल्लोल वश ये कहा,,

''हे प्रिये ! सुन्दर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशिले !

मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा।
इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ तब तक तुम
अग्नि में निवास करो।

प्रभु श्री राम ने ज्यों हि सब समझा कर सब कहा त्योंही
माता सीता प्रभु के चरणों को ह्रदय में धर कर अग्नि में
समां गयीं।
प्रभु की लीला को लक्ष्मण ने भी नही जाना।

इसीलिए रावण वध के पश्चात जब श्री राम ने लक्ष्मन से
अग्नि प्रज्वलित करने के लिए कहा कि सीता अग्नि पार
करके ही मेरे पास आयेंगी।

.. तो सुमित्रानंदन क्रोधित हो गये कि भइया आप मेरी
माता समान भाभी पर संदेह कर र्हे हैं..
मैं ऐसा नहीं होने दुंगा..

तब राम ने लक्ष्मण को सारा रहस्य बताया और कहा हे
लक्ष्मण सीता और राम तो एक ही हैं..
सीता पर संदेह का अर्थ है मैं स्वयं पर संदेह कर रहा हूँ...

और छायारुपी सीता की बात बताई और कहा कि
रावण वास्तविक सीता को अगर छू भी लेता तो
तत्काल भस्म हो जाता...

इसके बाद स्वयं माता जानकी ने लक्ष्मण से कहा...

"लक्ष्मन हो तुम धर्म के नेगी।
पावक प्रगट करो तुम वेगी॥"

हे लक्ष्मण अगर तुमने धर्म का पालन किया है तो शीघ्रता
से अग्नि उत्पन्न करो...
उसके बाद छायारुप मां जानकी अग्नि में प्रविष्ट हो गई
और वास्तविक सीता मां श्री राम के पास आ गई..॥

वैसे तो उपरोक्त वृतांत रामचरितमानस की चौपाइयों को
आधार बनाकर मैंने वर्णन किया है, फिर भी बहुत से ज्ञानी
या कहूं मतिमूढ,नकली(छायारुप) सीता वाली बात पर
विश्वास नहीं करेंगे...

त्रेताकाल के एक बहु-चर्चित देवी सीता की अग्नि-परीक्षा का
प्रसंग इसका उदाहरण है,
वर्णानानुसार देवी-सीता के लंका से लौटने पर श्री राम ने उन्हें
ज्यों-का-त्यों स्वीकार नहीं किया।

रूखे वचन कहकर उन्हें अपनी चारित्रिक विशुद्धता प्रमाणित
करने को कहा।
देवी सीता ने तुरंत इस चुनौती को स्वीकार किया और प्रचण्ड
अग्नि से गुज़रकर ‘अग्नि परीक्षा’ दी।

यह ऐतिहासिक दृष्टांत विद्वानों, समाजवादियों,
खासकर तथा-कथित नारी-संरक्षकों के लिए सदा
से विवाद का विषय रहा है।
वे इसे नारी की अस्मिता के प्रति घोर अन्याय मानते आए हैं।

परन्तु ऐसा केवल इसलिए है, क्यूँकि वे इस परीक्षा के तल में
छिपे वैज्ञानिक सत्य को नहीं जानते।

दरअसल यह लीला एक अनुपम विज्ञान था।
इसकी भूमिका  सीता हरण से पहले ही रची जा चुकी थी।

अध्यात्म रामायाण (अरण्य काण्ड, सप्तम सर्ग) में स्पष्ट रूप
से वर्णित है- अथ रामः अपि ---- शुभे

अर्थात रावण के षड़यंत्र को समझ, प्रभु श्री राम देवी सीता से
एकांत में कहते हैं-
‘है शुभे! मैं जो कहता हूँ,ध्यानपूर्वक सुनो।
रावण तुम्हारे पास भिक्षु रूप में आएगा।
अतः तुम अपने समान आकृति वाली प्रतिबिम्ब देह कुटी में
छोड़कर अग्नि में विलीन हो जाओ।

एक वर्ष तक वहीं अदृश्य रूप में सुरक्षित वास करो।
रावण वध के पश्चात्त तुम मुझे अपने पूर्ववत स्वरुप में पा लोगी।’

आगे (अरण्य काण्ड २३/२) में लिखा है कि प्रभु का यह सुझाव
पाकर श्री सीता जी अग्नि में अदृश्य हो गयी व अपनी छायामुर्ति
कुटी में पीछे छोड़ गयीं-

माँ सीता के इस वास्तविक स्वरुप को पुनः प्राप्त करने के लिए ही
अग्नि-परीक्षा हुई थी।
सो,यही अग्नि-परीक्षा के पीछे की सच्ची वास्तविकता है।

परन्तु आज का बौधिक व युवा वर्ग इसे एक अलंकारिक
अतिशयोक्ति या जादुई चमत्कार मान बैठता है।
किन्तु ऐसा बिल्कुल नहीं है।

दार्शनिक स्पिनोजा कहतें हैं ' Nothing happens in nature
which is in contradiction with its Universal laws'.
डॉ. हर्नाक कहते है 'जिन्हें हम चमत्कार समझते हैं,वे घटनाएँ भी
इस सृष्टि और काल के व्यापक नियमों के आधीन हैं।

अर्थात ब्रह्मांड में जो कुछ भी घटित होता है वह ब्रह्मांड के नियमों
के अनुकूल होता है।

हाँ,यह बात अलग है कि हम उन उच्च कोटि के नियमों
को नहीं जानते हों।'

ऋषि पातंजलि इस प्रतिबिम्ब शरीर को निर्माण देह,
बोध शास्त्र निर्माण काया कहते हैं।
‘ एकोअहं बहुस्याम’ की ताल पर श्री कृष्ण का रासलीला के
अंतर्गत अनेक स्वरूपों में प्रकट होना;कौशल्यानंदन का
शयनकक्ष व रसोईघर में एक समय में ही विद्यमान
होना- ये सभी योगविज्ञान के साधारण से प्रयोग हैं।

विपत्ति काल में सत्गुरु अपने दीक्षित शिष्यों की पुकार पर
वे एक ही समय में विश्व के अनेकों भागों में समान रूप,रंग,
गुण,कौशल व अभेद देह में प्रकट होते रहे हैं और
अपना विरद निभाने के लिए आगे भी यूँ ही प्रकट होते रहेंगे।

किस प्रकार यह प्रकटिकरण होता है? दरअसल, इस सृष्टि में
जीव, वस्तु या किसी भी प्रकार की सत्ता के निर्माण में दो
अनादि तत्त्वों का मेल चाहिए होता है।

उपादान तत्त्व- यह प्रकृति का सूक्ष्म जड़ तत्त्व है।
इसके स्थूल रूप को विज्ञान ‘मैटर’ कहता है।
यह तत्व त्रिगुण (सत्व,रजस,तमस) से युक्त होता है।
यह एक तरह से सृष्टि की प्रत्येक सत्ता का raw material
माना जाता है।

निमित्त तत्व - यह एक चैतन्य शक्ति है,जो चेतना के रूप में
सम्पूर्ण सृष्टि व उसके कण-कण में समाई हुई है।
इसे वैज्ञानिक शब्दावली में'cosmic precociousness'
-भी कहा गया है।

इन दोनों तत्वों के परस्पर संयोग से ही ‘निर्माण’ सधता है।
किस प्रकार ?

इसके लिए हम एक सरसरी दृष्टि'Creation of Universe'
पर डालें,जहाँ ये दोनों  तत्व अपने शुद्धतम रूप में प्रकट थे
और ‘सृष्टि निर्माण’ में विशुद्ध भूमिका निभा रहे थे।

उपादान( Matter ) + निमित्त ( Conciousness )
= सृष्टि (Universe)

दरअसल इस देह रचना में भी ठीक ‘सृष्टि रचना’ का ही
विज्ञान काम करता है।
वही दो अनादी तत्वों का प्रयोग होता है-ब्रह्मचेतना तथा
प्रकृति के उपादान तत्त्व।

यूँ तो चेतना प्रत्येक मनुष्य में क्रियाशील रहती है।
परन्तु यह प्रगाढ़ वासनाओं, करम- संस्कारों,अविद्या,
अज्ञानता से ढ़की और दबी रहती है।
अध्यात्म-ज्ञान या ब्रह्मज्ञान की साधना से ये समस्त
आवरण दूर होते हैं व चेतना शुद्धतम प्रखर रूप में प्रकट होती है।

पूर्ण आध्यात्मिक विभूतियों ने चेतना के इसी ब्रह्ममय स्वरुप
को पाया हुआ होता है।

जब भी आवश्यक होता है,ये पूर्ण चैतन्य विभूतियाँ अपनी
ब्रह्ममयी चेतना को प्रकृति के उपादान-तत्त्वों -पर आरूढ़
करती हैं।
उनकी यह चेतना प्रकृति के परमाणुओं पर लगाम कसती है ओर
उनमें विक्षोभ पैदा कर देती है।
फिर अपनी इच्छानुसार परमाणुओं में आकर्षण- विकर्षन कर
स्वयं अपनी आकृति की देह निर्मित्त कर लेती हैं।
वह भी मनचाही संख्या में!!

अंततः इस ‘निर्माण देह’ में ‘निर्माण चित्त’ को भी प्रवेश कराके
उसे पूर्ण रूप से सजीव कर देती हैं।

देवी सीता के विषय में भी ठीक यही अनादी विज्ञान प्रयोग में
लाया गया था।
सीता स्वयं में साक्षात चेतना-स्वरूपिणी -माँ भगवती थीं।
उनके लिए प्रकृति के जड़- तत्त्वों से छेड़छाड़ करके एक
प्रतिबिम्ब देह निर्मित कर्म दर्पण देखने के समान सहज था।

परन्तु उनके सन्दर्भ को पूरी तरह प्रकाशित करने के लिए हमें
एक तथ्य और जानना होगा।

वह यह की वेदों में आदिकालीन ब्रह्म-चेतना को ‘वैश्वानर अग्नि’
भी कहा गया है।
ब्रह्मसूत्र में इस अग्नि के विषय में यह बताया गया की यह अग्नि
न तो कोई दैविक अग्नि है,न ही भौतिक है।
यह निःसंदेह आदिकाल की ब्रह्म-अग्नि ही है।

ऋगवेद में कहा गया है (१-५८-१)-
जब यह अग्नि प्रकट होती है, तो अंतरिक्ष में फैल जाती है।
यह प्रकृति के परमाणुओं को सही मार्गों पर ले चलती है और
उनका निर्माण कार्य में प्रयोग करती है।

यहीं नहीं ऋग्वेद में एक अन्य ऋषि का कहना है –
केवल प्रकृति के कण-कण में ही नहीं, यह अग्नि मनुष्य के
अंग-अंग में भी विद्यमान होती है।

परन्तु ध्यान दें, यह अग्नि विद्यमान तो सब में होती है।
लेकिन विशुद्ध रूप से प्रकट केवल विकसित आत्माओं में
ही होती है-(ऋग्वेद १-१-२)

यह अग्नि पूर्व (कल्प) के ऋषियों को ज्ञात थी।
इस युग के ऋषियों को भी ज्ञात है।
यह सभी दैव-स्वरुप आत्माओं को ज्ञात होती है।

अब इन समस्त जानकारियों को साथ लेकर हम
सीता-अग्नि-परीक्षा के प्रसंग का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं।

देवी सीता की अग्नि-परीक्षा का वैज्ञानिक विश्लेषण :

ऋग्वेद (१-५८-२ ) में वैश्वानर अग्नि की त्रि-स्तरीय भूमिका
दर्शायी गई है।

वैश्वानर अग्नि शाश्वत चेतना है ।
यह प्रकृति के परमाणुओं को -
1. Integrate - संयुक्त करती है।
2. Disintegrate- पृथक भी करती है ।
3. Preserve- सुरक्षित भी रखती है।

यह तीनों वही भूमिकाएँ हैं, जो सृष्टि-निर्माण-
-कार्य में ब्रह्म-चेतना की थीं।
और यही वे वैज्ञानिक क्रियाएँ हैं, जो सीता-अग्नि-परीक्षा
में भी प्रयोग की गईं।

सीता-हरण से पूर्व जब श्री राम ने देवी सीता को अपना
प्रतिबिम्ब पीछे छोड़कर अग्नि में निवास करने को कहा,
तो वास्तव में क्या हुआ ?

क्या वैज्ञानिक-लीला घटी ?
सीता ने तत्क्षण अग्नि प्रकट की। कदाचित यह कोई लौकिक
अग्नि नहीं,
वैश्वानर अग्नि ही थी।
अर्थात सीता ने अपनी ब्रह्म चेतना को सक्रिय किया।
फिर उसके द्वारा प्रकृति के परमाणुओं में हस्तक्षेप किया।
उन्हें प्रयोजनानुसार जोड़कर एक अन्य निज-देह प्रकट कर ली।
यह पहली वैज्ञानिक क्रिया थी।

इसके पश्चात माँ सीता ने ब्रह्म-चेतना या वैश्वानर अग्नि के
द्वारा अपनी वास्तविक देह के परमाणुओं को अलग-अलग
कर दिया।

प्रसंग के अनुसार माँ सीता कि वास्तविक देह अग्नि में विलीन
हो गयी थी।
अग्नि में यह विलीनता वैज्ञानिक स्तर पर वैश्वानर अग्नि
द्वारा देह का उपादान तत्व में बिखर जाना अर्थात'
disintegration -of body'ही था।

यह दूसरी वैज्ञानिक क्रिया थी।

फिर ये पृथक तत्त्व या परमाणु एक वर्ष तक उनकी वैश्वानर
अग्नि के संरक्षण में रहे।
उसी वैश्वानर अग्नि अथवा ब्रह्म-चेतना के,जो सकल सृष्टि के
परमाणुओं की रक्षा करती है व जिसका आह्वान कर ऋषियों ने
कहा- (ऋग्वेद १-१-१) -
हे अग्नि स्वरूप ब्रह्म-चेतना! पिता स्वरुप में,अपनी संतान की
तरह हमारी रक्षा करो।
कहने का आशय यह है कि सीता सशरीर नहीं,परमाणुओं के रूप
में ब्रह्माण्ड की वैश्वानर अग्नि में समाहित रहीं।
यह तीसरी वैज्ञानिक प्रक्रिया थी ।

एक वर्ष बाद ... विजय बिगुल बजे और पुनर्मिलन की बेला आई।
तब पुनः यहीं विज्ञान दोहराया गया।
रामायण (युद्धकाण्ड सर्ग १२/७५ ) के प्रसंगानुसार -

राघव ने एक विशेष कार्य के लिए निर्मित मायावत सीता को देखा
और अग्नि-परीक्षा देने को कहा।

श्री राम का यह कथन,वास्तव में देवी सीता को पुनः उसी वैज्ञानिक
प्रक्रिया का संधान करने की प्रेरणा ही थी।
उस समय प्रतीकात्मक रूप में भौतिक अग्नि जलाई गयी।
परन्तु सीता जी का आह्वान तो वैश्वानर अग्नि के प्रति ही था।

(युद्धकाण्ड सर्ग -१३ )-
हे सर्वव्यापक! अति पावन! लोक साक्षी अग्नि !...
स्पष्ट है,
ये संबोधन लौकिक अग्नि के लिए नहीं हो सकते थे।

अतः लौकिक अग्नि की आड़ में वैश्वानर-अग् -नि (ब्रह्मचेतना)
पुनः सक्रिय हुई।
उसने सीता जी की प्रतिबिम्ब देह के परमाणुओं को बिखेर कर
पुनः प्रकृति में मिला दिया।
फिर वास्तविक देह के परमाणुओं को एकत्र कर पूर्ववत जोड़ दिया।
देवी सीता को सुरक्षित रूप में श्री राम के समक्ष प्रकट किया।

यहीं वैज्ञानिक विलास प्रतीकात्मक शैली में इस प्रकार रखा गया-
लोक साक्षी भगवन वास्तविक जानकी को पिता के समान गोद में
बिठाए हुए प्रकट हुए और रघुनाथ जी से बोले- मेरे पितास्वरूप
संरक्षण में सौंपी हुई जानकी को पुनः ग्रहण कीजिये।

वह प्रतिबिंबरुपिणी -सीता जिस कार्य के लिए रची गयी थी,
उसे पूरा करके पुनः अदृश्य हो गयी है।

यह वचन सुनकर श्री राम ने अत्यंत प्रसन्नता से जानकी जी को
स्वीकार कर लिया।
उसी क्षण इस विज्ञान के ज्ञाताओं - ब्रह्मा,महेश आदि देवताओं
ने आकाश से फूल बरसाए।

परन्तु अवैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वालों ने उस काल से आज
तक कभी सीता पर कलंक,तो कभी राम पार आक्षेप लगाए।
जय माता की !!
जय शिव शम्भू !!