Tuesday 25 August 2015

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग पूरे विश्व में एक मात्र ऎसा ज्योतिर्लिंग है. जो दक्षिण कीऔर मुख किये हुए है.

उज्जैन नगरी सदा से ही धर्म और आस्था की नगरी रही है. उज्जैन की मान्यता किसी तीर्थ स्थल सेकम नहीं है. यहां पर स्थित महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग  पूरे विश्व में एक मात्र ऎसा ज्योतिर्लिंग है. जो दक्षिण कीऔर मुख किये  हुए है. यह ज्योतिर्लिंग तांत्रिक कार्यो के लिए विशेष रुप से जाना जाता  है.इसके अतिरिक्त इस ज्योतिर्लिग की सबसे बडी विशेषता यह है कि यह  ज्योतिर्लिंग स्वयंभू है. अर्थात इसकी स्थापना अपने आप हुई है. इस धर्म  स्थल में जो भी व्यक्ति पूरी श्रद्वा और विश्वास के साथ आता है. उस व्यक्ति के आने का औचित्य अवश्य पूरा होता है. महाकाल की पूजा विशेष रुप से आयु  वृ्द्धि और आयु पर आये हुए संकट को टालने के लिए की जाती है. स्वास्थय  संबन्धी किसी भी प्रकार के अशुभ फल को कम करने के लिए भी महाकाल  ज्योतिर्लिंग में पूजा-उपासना करना पुन्यकारी रहता है. महाकालेश्वर मंदिर केविषय में मान्यता है, कि महाकाल के भक्तो का  मृ्त्यु और बीमारी का भय समाप्त हो जाता है. और उन्हें यहां आने से अभय दान मिलता है. महाकाल ज्योतिर्लिंग उज्जैन के राजा है. और वर्षों से उज्जैन कि रक्षा कर रहे है.

महालेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापना कथा*****महालेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना से संबन्धित के प्राचीन कथा प्रसिद्ध है. कथा के अनुसार एक बार अवंतिका नाम के राज्य में राजा वृ्षभसेन नाम के  राजा राज्य करते थे. राजा वृ्षभसेन भगवान शिव के अन्यय भक्त थे. अपनी दैनिक दिनचर्या का अधिकतर भाग वे भगवान शिव की भक्ति में लगाते थे.एक बार पडौसी राजा ने उनके राज्य पर हमला कर दिया. राजा वृ्षभसेन अपने  साहस और पुरुषार्थ से इस युद्ध को जीतने में सफल रहा. इस पर पडौसी राजा ने  युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए अन्य किसीमार्ग का उपयोग करना उचित  समझा. इसके लिए उसने एक असुर की सहायता ली. उस असुर को अदृश्य होने का  वरदान प्राप्त था. राक्षस ने अपनी अनोखी विद्या का प्रयोग करते हुए अवंतिका राज्य पर अनेक  हमले की. इन हमलों से बचने के लिए राजा वृ्षभसेन ने भगवान शिव की शरण लेनी  उपयुक्त समझी. अपने भक्त की पुकार सुनकर भगवान शिव वहांप्रकट हुए और  उन्होनें स्वयं ही प्रजा की रक्षा की. इस पर राजा वृ्षभसेन ने भगवान शिव सेअंवतिका राज्य में ही रहने का आग्रह किया, जिससे भविष्य में अन्य किसी  आक्रमण से बचा जा सके. राजा की प्रार्थना सुनकर भगवान वहां ज्योतिर्लिंग के रुप में प्रकट हुए. और उसी समय से उज्जैन में महाकालेश्वर की पूजा की जाती है.

महाकालेश्वर मंदिर मान्यता और महत्व*********उज्जैन राज्य में महाकाल मंदिर में दर्शन करने वाले भक्त ज्योतिर्लिंग  के साथ साथभगवान कि पूजा में प्रयोग होनेवाली भस्म के दर्शन अवश्य करतेहै, अन्यथा श्रद्वालु को अधूरा पुन्य मिलता है. भस्म के दर्शनों का विशेष  महत्व होने के कारण ही यहां आरती के समय विशेष रुप से श्रद्वालुओं का जमघट  होता है. आरती के दौरान जलती हुई भस्म से ही यहां भगवान महाकालेश्वर का श्रंगार  किया जाता है. इस कार्य को दस नागा साधुओं के द्वारा किया जाता है. भस्म  आरती में केवल पुरुष भक्त ही भाग ले सकते है. और दर्शन कर सकते है. महिलाओं को इस दौरान दर्शन और पूजन करना वर्जित होता है. इसके अतिरिक्त जो भक्त इस मंदिर में सोमवती अमावस्या के दिन यहां आकर पूजाकरता है, उसके सभी पापों का नाश होता है.कोटि कुण्ड उज्जैनदक्षिणामुखी महाकालेश्वर मंदिर के निकट ही एक कुण्ड है. इस कुण्ड को कोटि  कुण्ड के नाम से जाना जाता है. इस कुण्ड में कोटि-कोटि तीर्थों का जल है.  अर्थात इस कुण्ड में अनेक तीर्थ स्थलों का जल होने की मान्यता है. इसी वजह  से इस कुण्ड में स्नान करने से अनेक तीर्थ स्थलों में स्नान करने के समान  पुन्यफल प्राप्त होताहै. इस कुण्ड की स्थापना भगवान राम के परम भक्त  हनुमान के द्वारा की गई थी.

महाकाल मंत्र | Mahakal Mantraऊँ महाकाल महाकाय, महाकाल जगत्पते। महाकाल महायोगिन्‌ महाकाल नमोऽस्तुते॥

शिव पुराण के अनुसार भीमशंकर ज्योतिर्लिंग

भीमशंकर ज्योतिर्लिंग असम प्रान्त के कामरूप जनपद में गुवाहाटी के पास ब्रह्मरूप पहाड़ी पर स्थित है। कुछ लोग तो उत्तराखंड प्रदेश के नैनीताल ज़िले में ‘उज्जनक’ स्थान पर स्थित भगवान शिव के विशाल मन्दिर को भी भीमशंकर ज्योतिर्लिंग कहते हैं। श्री शिव महापुराण  के कोटि रुद्र संहिता में श्री भीमशंकर ज्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में इस  प्रकार लिखा है– ‘लोक हित की कामना से भगवान शंकर कामरूप देश में ज्योतिर्लिंग के  रूप में प्रकट हुए। उनका वह कल्याणकारक स्वरूप बड़ा ही सुखदायी था।  पूर्वकाल में भीमनामक एक महाबलशाली और पराक्रमी राक्षस उत्पन्न हुआ था। वह अत्याचारी राक्षस जगह-जगह धर्म का नाश करता हुआ सम्पूर्ण प्राणियों को  सताया करता था। भयंकर बलशाली वह राक्षस कुम्भकर्ण के वीर्य और कर्कट की पुत्री कर्कटी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। भीम अपनी  माता कर्कटी के साथ ही ‘सह्य’ नामक पर्वत पर निवास करता था। उसने अपने जीवन में अपने पिता को कभी नहीं देखा था। एक दिन उसने आपनी माता से पूछा- ‘माँ!  तुम इस पर्वत पर अकेली क्यों रहती हो? मेरे पिताजी कौन हैं और कहाँ रहते  हैं? मुझे ये सब बातें जानने कीबड़ी इच्छा है, इसलिए तुम सच-सच बताओ’–मात मे क: पिता कुत्र कथं वैकाकिनी स्थिता। ज्ञातुमिच्छमि तत्सर्वं यथार्थं त्वं वदाधुना।।[1]तदनन्तर उसकी माता कर्कटी ने उसे विस्तार से बताया कि तुम्हारे पिता का नाम कुम्भकर्ण था, जो रावण के छोटे भाई थे। महाबलशाली और पराक्रमी उस वीर को भाई सहित श्रीराम ने मार डाला था। मेरे पिता अर्थात तुम्हारे नाना का नाम कर्कट और नानी का  नाम पुष्कसी था। मेरे पूर्व पति कानाम ‘विराध’ था, जिन्हें पहले ही श्रीराम ने मार डाला था। मैं अपने प्रिय स्वामी विराध के मारे जाने पर अपने माता-पिता के पास आकर रहने लगी थी, क्योंकि मेरा सहारा अन्य कोई नहीं था।  एक दिन मेरे माता-पिता आहार की खोज में निकले और उन्होंने अगस्त्य मुनि के परम शिष्य तपस्वी सुतीक्ष्ण को अपना आहार बनाना चाहा, किन्तु वे  ऋषि महान तपस्वी और महात्मा थे। इसलिए उन्होंने कुपित होकर अपने तपोबल से  मेरे माता-पिता को भस्म कर डाला। वे दोनों वहीं मर गये और मैं अकेली अनाथ  हो गई। मुझ पर चारों तरफ से दु:ख कापहाड़ टूट पड़ा और मैं दु:खी होकर  अकेली इस पर्वत पर रहने लगी। मेरा इस दुनिया में कोई अवलम्बन क्या सहारा भी न रहा और मैं आतुर होकर एकाकी ही किसी प्रकार अपना जीवन जी रही थी। एक दिन इस सुनसान पहाड़ पर राक्षसराज रावण के छोटे भाई महाबल और पराक्रम से युक्त कुम्भकर्ण आ गये। उन्होंने मेरे साथ बलात्कार किया और समागम के बाद वे  मुझे यहीं छोड़कर पुन: लंका में चले गये। उसके बाद समय पूरा होने पर तुम्हारा जन्म हुआ। बेटा! तुम  अपने पिता के समान ही साक्षात महाबली और पराक्रमी हो। तुम्हें ही  देख-देखकर, तुम्हारे ही सहारे अब मैं अपनाजीवन चला रही हूँ और किसी तरह  समय बीत रहा है। अपनी माता कर्कटी के बात सुनकर भयानक पराक्रमी राक्षस कुपित हो उठा। उसने विचार किया कि विष्णु के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, उनसे प्रतिरोध (बदला) लेने का क्या  उपाय है? वह चिन्तित होकर अपनी माँ की बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने  लगा- ‘विष्णु ने मेरे पिता को मार डाला। मेरे नाना-नानी भी उनके ही भक्त के हाथों मारे गये। इतना ही नहीं विराध को भी उन्होंने ही मार डाला। निश्चित  ही श्रीहरि ने मुझ पर बहुत ही अत्याचार किया है, अत्यधिक कष्ट दिया है।  उसने निश्चय किया कि हरि द्वारा किये गये कृत्य का बदला वह अवश्य लेगा।  उसने अपनी माता के सामने कहा कि यदि मैं अपने पिता का पुत्र हूँ, तो श्री  हरि से अवश्य ही बदला लेकर रहूँगा, उन्हें भारी कष्ट दूँगा। इस प्रकार निश्चय कर वह बलवान राक्षस अपनी शक्ति को और अधिक बढ़ाने के लिए तपस्या करने चलागया। उसने संकल्प लेकर ब्रह्माजी को प्रसन्न करने हेतु एक हज़ार वर्षों तक तप किया। वह मानसिक रूप से अपने  इष्टदेव के ध्यान में ही मग्न रहता था। उसकी तपस्या, ध्यान औरअर्चना-वन्दना से लोकपितामह ब्रह्मा जी प्रसन्न हो उठे। ब्रह्मा जी ने उसे  वर देने की इच्छा से कहा- ‘भीम! मैं तुम्हारी तपस्या और धैर्य से बहुत  प्रसन्न हूँ और तुम्हें वर देना चाहता हूँ। इसलिए तुम अपना अभीष्ट वर  मांगो।’ तदनन्तर उस राक्षस ने कहा– ‘देवेश्वर! यदि आप मेरे ऊपर सच में  प्रसन्न हैं और मेरा भला करना चाहते हैं, तो आप मुझेअतुलनीय बल प्रदान  कीजिए। मुझे इतना बल और पराक्रम प्राप्त हो, जिसकी तुलना कहीं भी न हो  सके।’ इस प्रकार बोलते हुए राक्षस भीम ने बार-बार ब्रह्मा जी को प्रणाम  किया। उसकी तपस्या से प्रभावित ब्रह्मा जी उसे अतुलनीय बल-प्राप्ति का वर  देकर अपने धाम चले गये। ब्रह्मा जी से अतुलनीय बल प्राप्त करने के कारण वह  राक्षस अत्यन्त प्रसन्न हो गया। उसने अपने निवास पर आकर अपनी माता जी को  प्रणाम किया और अत्यन्त अहंकार के साथ उससे कहा– ‘माँ! अब तुम मेरा बल और  पराक्रम देखो। अब मैं इन्द्र इत्यादि देवताओं के साथ ही इनका सहयोग करने वाले महान श्री हरि का भी  संहार कर डालूँगा। अपनी माँ सेइस प्रकार कहने के बाद वीर राक्षस भीम ने  इन्द्रादि देवताओं पर चढ़ाई कर दी। उसने उन सबको जीत लिया और उनके स्थान से उन्हें भगा दिया। उसके बाद तो उसने घोर युद्ध करके देवताओं का पक्ष लेने  वाले श्रीहरि को भी परजित कर दिया] उसके बाद भीम ने प्रसन्नतापूर्वक सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने का अभियान  चलाया। वह सर्वप्रथम कामरूप देश के राजा सुदक्षिण को जीतनेके लिए पहुँचा।  उसने उस राजा के साथ भंयकर युद्ध किया। क्योंकि ब्रह्मा जी के वरदान से भीम के पास अतुलनीय शक्ति प्राप्त थी, इसलिए महावीर और शिव के परम भक्त सुदक्षिण युद्ध में परास्त हो गये। उसनेराजा का राज्य और  उनकी सम्पूर्ण सम्पत्ति को अपने अधिकार में ले लिया। इतने पर भी उस  पराक्रमी राक्षस भीम का क्रोध शान्त नहीं हुआ, तो उसने धर्म प्रेमी और शिव  के अनन्य भक्त राजा सुदक्षिण को कैद कर लिया। सुदक्षिण के पैरों में बेड़ी  डालकर उन्हें एकान्त स्थान में निरुद्ध (बन्द) कर दिया। उस एकान्त स्थान का लाभ उठाते हुए शिव भक्त राजा सुदक्षिण ने भगवान शिव की उत्तम पार्थिव  मूर्ति बनाकर उनका भजन-पूजन प्रारम्भ कर दिया।  गंगा जी को भी प्रसन्न करने के लिए राजा ने ढेर सारी स्तुति की और विवशता के कारण  मानसिक स्नान किया। उसके बाद उन्होंने शास्त्र विधि से पार्थिव लिंग में  भगवान शिव की अर्चना की। उसके बाद वे विधिपूर्वक भगवान शिव का ध्यान करते  हुए पंचाक्षर मन्त्र अर्थात ‘ॐ नम: शिवाय’ का जप करने लगे। राजा सुदक्षिण  इसी दिनचर्या को अपनाकर रात-दिन शिव जी की भक्ति में लगे रहते थे। उनकी  साध्वी धर्मपत्नी रानी दक्षिणा भी राजा का अनुकरण करती हुई श्रद्धा-भक्ति  पूर्वक पार्थिव पूजन में जुट गयीं। वेपति-पत्नी अकारण करुणावरुणालय भगवान  शिव को प्रसन्न करने हेतु अनन्य भाव से उनकी भक्ति में लीन रहते थे। राक्षस भीम ब्रह्मा जी के वरदान के कारण अत्यन्त अहंकार में डूब गया। अभिमान में मोहितहोकर  वह यज्ञों का विध्वंस करने लगा और तमाम धार्मिक कृत्यों में बाधा डालने  लगा। उसने जनता में ऐसी घोषणा करवा दी कि संसार का सब कुछ उसे ही मानें और  समझें। इस प्रकार उस दुष्ट राक्षस ने एक विशाल सेनाइकट्ठी करके सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने अधिकार में कर लिया। उसके बाद उसके दुराचारों की सीमा न रही। राक्षस भीम के अत्याचार से पीड़ित सभी देवता और ऋषिगण महाकोशी नदी  के किनारे जाकर भगवान शिव की आराधना और स्तुति करने लगे। उनकी सामूहिक  स्तुति और प्रार्थना से भगवान शंकर ने देवताओं से कहा–‘देवगण तथा  महर्षियों! मैं आप लोगों पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ, बोलिए, आपलोगों का  कौन-सा अभीष्ट कार्य (प्रियकार्य) सिद्ध करूँ?’ देवताओं ने देवाधिदेव से  कहा कि ‘आप अन्तर्यामी हैं, इसलिए सबके मन की बात जानते हैं। आपसे कोई भी  रहस्य छिपा नहीं रह सकता है।’ देवताओं ने आगे कहा– ‘महेश्वर! राक्षस  कुम्भकर्ण से उत्पन्न कर्कटी का महाबलशाली पुत्र राक्षस भीम, ब्रह्मा जी से वर प्राप्त कर अत्यन्त शक्तिशाली और अभिमान में आ गया है तथा देवताओं को  अनवरत कष्ट पहुँचारहा है। भगवान! बिना देरी किये आप उस दु:खदायी राक्षस का शीघ्र ही नाश कर डालिए। हम सभी देवगण उससे अत्यन्त क्षुब्ध होकर आपकी शरण  में आये हैं।’ भगवान शिव ने उन देवताओं को आश्वस्त करते हुए बताया कि कामरूप देश  के राजा सुदक्षिण उनके श्रेष्ठ भक्त हैं। आप लोगउनके पास मेरा एक सन्देश  सुना दो। उसके बाद आप लोगों का सारा अभीष्ट कार्य पूरा हो जाएगा। उनसे  बोलना – कामरूप के अधिपति महाराज सुदक्षिण! तुम शिव के परम भक्त हो। इसलिए  तुम उनका प्रेमपूर्वक भजन करो। दुष्ट राक्षस भीम ब्रह्मा जी का वर प्राप्त  कर ही अभिमानी बन गया है और इसीलिए वह तुम्हारा अपमान कर रहा है। अपने भक्त के कष्ट को नहीं सहन करने वाले भगवान शिव शीघ्र ही उस दुष्ट राक्षस का नाश करने वाले हैं। इस वाणी में किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है।’ उसके बाद  भगवान शंकर की वाणी से अत्यन्तप्रसन्न उन देवताओं ने महाराजा सुदक्षिण के  पास पहुँचकर सारी घटना बताई। राजा को शिव का कल्याणकारक सन्देश देने से  देवताओं और ऋषियों का हित करने वाले भगवान शंकर अपनेगणों के साथ उस राजा  के निकट जाकर गोपनीय रूप में वहीं ठहर गये। राजा सुदक्षिण विधिपूर्वक  पार्थिवपूजन करके भगवान शिव के ध्यान में लीन हो गये। किसी व्यक्ति ने जाकर राक्षस से बताया कि राजा पार्थिव पूजन करके  तुम्हारे लिए अनुष्ठान कर रहे हैं। समाचार पाते ही राक्षस क्रोध से आग –  बबूला हो उठा। वह राजा का वध करने हेतु हाथ में नंगी तलवार लेकर चल पड़ा।  ध्यान में मग्न राजा को देखकर उसका चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था। उसने पूजन सामग्री, पार्थिव शिवलिंग, वातावरण को देखकर तथा उसके प्रयोजन और स्वरूप  को समझकर मान लिया कि राजा उसके अनिष्ट के लिए ही कुछ कर रहा है। उस  महाक्रोधी राक्षस ने ऐसा विचार किया कि इन सब पूजन सामग्रियों सहित इस नरेश को भीमैं शीघ्र ही नष्ट कर देता हूँ। उसने राजा को डाँट-फटकार लगाते हुए  पूछा कि ‘तुम यह क्याकर रहे हो?’ राजा भगवान शंकर के समर्पित भक्त थे।  इसलिए उन्होंने निर्भयतापूर्वक कहाकि ‘मैं चराचर जगत के स्वामी भगवान शिव  की पूजा कर रहा हूँ।’यह सुनकर मद में मतवाले उस राक्षस ने भगवान शिव के प्रति बहुत से  दुर्वचन बोले और उनका अपमान किया तथा पार्थिव लिंग पर तलवार का प्रहार  किया। उसकी तलवार लिंग को छू नहीं पायी, तभी भगवान रुद्र (शिव) तत्काल  प्रकट हो गये। उन्होंने कहा–‘देखो, मैं भीमेश्वर शिव अपने भक्त की रक्षा के लिए प्रकट हुआ हूँ। इसलिए राक्षस! अब तू मेरे बल और पराक्रम को देख।’ इस  प्रकार बोलते हुए भगवान शिव ने अपने पिनाक से उसकी तलवार के टुकड़े-टुकड़े  कर दिया। उसके बाद उस राक्षस ने शिव जी पर अपना त्रिशूल चला दिया, किन्तु उन्होंने उसके भी अनेक टुकड़े कर डाले। तदनंन्तर उस राक्षस ने शिव जी के  साथ घोर युद्ध किया, जिससे सारा जगत क्षुब्ध हो उठा। उस स्थिति में मुनि नारद वहाँ पहुँच गये और उन्होंने भगवान शंकर से प्रार्थना की ‘महेश्वर! संसार  को भ्रमित करने वाले मेरे नाथ! अब आप क्षमा करें। सामान्य तिनके को काटने  हेतु कुल्हाड़ी चलाने की क्या आवश्यकता है? अब तो इसका संहार शीघ्र कर डालिए–क्षम्यतां क्षम्यतां नाथत्वया विभ्रमकारक। तृणे कश्च कुठारे वै हन्यतां शीघ्रमेव हि।। इति संप्रार्थित: शम्भु: सर्वान रक्षोगणान्प्रभु:। हुंकारेणैव चास्त्रेण भस्मसात्कृतवांस्तदा।।[2]इस प्रकार जब नारद जी ने भगवान शिव की प्रार्थना की, उन्होंने अपनी  हुँकार मात्र से भीम सहित समस्त राक्षसों को भस्म कर डाला। उन राक्षसों को  शंकर जी के द्वारा जला दिये जाने के बाद समस्त देवताओं और ऋषियों ने राहत  की साँस ली तथा लोक मेंशान्ति की स्थापना हो सकी। ऋषियों ने देवाधिदेव  भगवान शिव की  विशेष स्तुति और प्रार्थना की। उन्होंने कहा–‘भूतभावन शिव!  यह क्षेत्र बहुत ही निन्दित माना जाता है, इसलिए लोक कल्याण की भावना से आप सदा के लिए यहीं निवास करें। प्राय: ऐसा देखा गया है कि जो व्यक्ति यहाँ  आता है, उसे कष्ट ही मिलता है, किन्तु आपके दर्शन करने से प्रत्येक आने  वाले का कल्याण होगा। भगवान! आपका यह ज्योतिर्लिंग सर्वथा पूजनीय तथा सभी  प्रकार के संकटों को टालने वाला है। आप यहाँ भीमशंकर के नाम से प्रसिद्ध  होंगे और सबके मनोरथों को सिद्ध करेंगे। इस प्रकार देवताओं तथा ऋषियों की प्रार्थना पर प्रसन्न भक्तवत्सल शिव ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया और  प्रसन्नतापूर्वक वहीं स्थित हो गये। इस प्रकार की कथा का प्रामाणिक उल्लेख  श्री शिव पुराण में विस्तार से किया गयाहैअयं वै कुत्सितो देश अयोध्यालोकदु:खद:। भवन्तं च तदा दृष्ट्वा कल्याणं सम्भाविष्यति।। भीमशंकरनामा त्वं भविता सर्वसाधक:। एतल्लिंग सदा पूज्यं सर्वापद्विनिवारकम्।। इत्येवं प्रार्थित: शम्भुलोकानां हितकारक:। तत्रैवास्थितवान्प्रीत्या स्वतन्त्रो भक्तवत्सल:।।[3]जनश्रुतियाँ*.जनश्रुतियों तथा महाराष्ट्र में बहने वाली भीमा नदी को आधार बनाकर कुछ लोग भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का स्थान मुम्बई से पूर्व और पूना से उत्तर भीमा नदी के किनारे मानते हैं। वहाँ पर भगवान शिव सह्याद्रि पर्वत पर अवस्थित हैं। द्वाद्वश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र में  ‘डाकिन्यां भीमशंकरम्’ ऐसा लिखा है, किन्तु इस ‘डाकिनी’ स्थान का कहीं  अता-पता नहीं है। हो सकता है, प्राचीनकाल में वहाँ कोई बस्ती रही हो, जो  कालान्तर में नष्ट हो गई हो। सह्याद्रि पर्वत जिस पर भगवान भीमशंकर  विराजमान हैं, उसी से भीमा नदी निकल कर प्रवाहित होती है। इस लिंगमूर्ति से किंचित जल रिसता हुआ गिरता है। इसके समीप ही जल के दो कुण्ड भी हैं और  आस-पास लोगों की बस्ती है। उन निवासियों के अनुसार भगवान शंकर ने  त्रिपुरासुर का वध करने के बाद उसी स्थान पर विश्राम किया था।*.उस समय अवध के निवासी किसी सूर्यवंशी राजा ने उस पर्वत पर जाकर कठोर तपस्या की थी।  उसकी भक्ति और तपस्या से भगवान शंकर अतीव प्रसन्न हुए थे। बताते हैं कि उस  राजा का भी नाम ‘भीम’ था। प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिया था,  उसी समय से यह ज्योतिर्लिंग भीमशंकर के नामसे प्रसिद्ध हुआ। ऐसा प्रतीत  होता है कि अवध नरेश राजा भीम और भीमा नदी के कारण सह्याद्रि पर्वत का वह भाग और शिवलिंग श्री भीमशंकर ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात हुआ।*.उक्त श्री भीमशंकर स्थान मुम्बई से पूना जाने वाले रेलमार्ग पर कल्याण जंकशन से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर नेराल रेलवे स्टेशन है और यहाँ से पूरब दिशा में लगभग 25 किलोमीटर पर अवस्थित  है। यहाँ से बस, टैक्सी आदि का साधन उपलब्ध होता है। तलेगाँव रेलवे स्टेशन  से भीमशंकर की दूरी लगभग 36 किलोमीटर है। यहाँ से भी मोटरमार्ग की अच्छी  सुविधा है।*.यद्यपि ज्योतिर्लिंग के स्थान के सम्बन्ध में क्षेत्र विशेष के आधार पर मतान्तर दिखाता है, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से इन शिवलिंगों का महत्त्व कम नहीं होता है। ये सभी सिद्ध स्थान हैं, जहाँ दर्शन-पूजन  करने से भगवान शिव प्रसन्न होकर अपने भक्तों की मनोकामना को पूर्ण करते  हैं। हिन्दू धर्म में जनश्रुतियोंकी अपेक्षा शास्त्रों का विशेष महत्त्व है। श्री शिव महापुराण हमारा शास्त्र है और उसके अनुसार असम प्रदेश के कामरूप ज़िले में गुवाहाटी के पास स्थित भीमशंकर मन्दिर ही श्री भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का स्थान हो  सकता है। मुख्य रूप से शिव के उपासकों को वहाँ जाकर भगवान श्री भीमशंकर  ज्योतिर्लिंग का दर्शन अवश्य करना चाहिए।

Monday 24 August 2015

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग भोपाल राज्य में स्थित है. ओंकारेश्वर  ज्योतिर्लिंग को भोपाल का सर्वश्रेष्ठ ज्योतिर्लिंग माना गया है. यह  ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश मेंपुणे जिले में स्थित है. इस ज्योतिर्लिंग के  बाद से दक्षिण भारत का प्रवेश प्रारम्भ होता है. जिस स्थान पर यह ज्योतिर्लिंग स्थित है, उस स्थान पर नर्मदा नदी बहती  है. और पहाडी के चारों ओर नदी बहने से यहां ऊँ का आकार बनता है. ऊं शब्द की उत्पति ब्रह्रा के मुख से हुई है. इसका उच्चारण सबसे पहले जगत पिता देव  ब्रह्ना जी ने किया था. किसी भी धार्मिक शास्त्र या वेदों का पाठ ऊँ नाम के उच्चारण के बिना नहीं किया जाता है. यह ज्योतिर्लिंग औंकार अर्थात ऊँ का आकार लिए हुए है. इस कारण इसे  औंकारेश्वर नाम से जाना जाता है. ओंकारेश्वर मंदिर में108 शिवलिंग है. तथा यहां 33 करोडदेवताओं का निवास होने की मान्यता है. ओंकारेश्वर  ज्योतिर्लिंग में भी 2 ज्योतिर्लिंग है. जिसमें ओंकारेश्वर और दूसरा  ममलेश्वर ज्योतिलिंग है. भारत के कुल 12 ज्योतिर्लिंगों में से दो ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश में  स्थित है. इसमें से एक उज्जैन में महाकालहै, तथा दूसरा ओंकारेश्वर खण्डवा  में है. खण्डवा में ज्योतिर्लिंग के दो स्वरुप है.दोनों स्वरुपों के दर्शन से मिलने वाला पुन्य फल समान है. दोनों को धार्मिक महत्व समान है.ओंकारेश्वर ज्योतिलिंग स्थापना कथा————खण्डवा में ज्योतिर्लिंग के दो रुपों की पूजा की जाती है. दोरुपों की  पूजा करने से संबन्धित एक पौराणिक कथा प्रचलित है. कथा इस प्रकार है. कि एक बार विन्ध्यपर्वत ने भगवान शिव की कई माहों तक कठिन तपस्या की उनकी इस  तपस्या से प्रसन्न होकर शंकर जी ने उन्हें साक्षात दर्शन दिये. औरविन्ध्य  पर्वत से अपनी इच्छा प्रकट करने के लिए कहा. इस अवसर पर अनेक ऋषि और देव भी उपस्थित थे़. विन्ध्यपर्वत की इच्छा केअनुसार भगवान शिव ने ज्योतिर्लिंग  के दो भाग किए. एक का नाम ओंकारेश्वर रखा तथा दूसरा ममलेश्वर रखा.ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग को स्वयं भगवान शिव ने स्थापित किया है. यहां  जाने के लिए श्रद्वालुओं को दो कोठरीयों से होकर जाना पडता है. और इन  कोठरियों में अत्यधिक अंधेरा रहता है. इन कोठरियों में सदैव जल भरा रहता  है. श्रद्वालुओं को इस जल से ही होकर जाना पडता है. भगवान शिव के उपासक यहां भगवान शिव का पूजन चने की दाल चढाकर करते है.  रात्रि में भगवान शिव का पूजन और रात्रि जागरण करने का अपना एक विशेष महत्व है. शिवरात्रि पर यहां विशेष मेलों का आयोजन किया जाता है. इसके अतिरिक्त  कार्तिक मास में पूर्णिमा तिथि मे भी यहां बहुत बडे मेले का आयोजन किया  जाता है. ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मेंपांच केदारों के दर्शन करने केसमान फल  प्राप्त होता है. यहां दर्शन करने से केदारनाथ के दर्शन करने के समान फल  मिलता है.ओंकारेश्वर मंदिर महिमादेवस्थानसमं ह्येतत् मत्प्रसादाद् भविष्यति। अन्नदानं तप: पूजा तथा प्राणविसर्जनम्। ये कुर्वन्ति नरास्तेषां शिवलोकनिवासनम्।।[1]शिव पुराण में ओंकारेश्वार मंदिर की महिमा का गुणगान कियागया है. यह  स्थान अलौकिक तीर्थ स्थानों में आता है. इस तीर्थ स्थान के विषय में कहा  जाता है.कि इस तीर्थ स्थान में तप और पूजन करने से व्यक्ति की मनोकामना  अवश्य पूरी होती है. और व्यक्ति इस लोक के सभी भोगों को भोग कर परलोक में  विष्णु लोक को प्राप्त करता है.ओंकारेश्वार ज्योतिर्लिंग सेसंबन्धित एक अन्य कथाभगवान के महान भक्त अम्बरीष औरमुचुकुन्द के पिता सूर्यवंशी राजा  मान्धाता ने इस स्थान पर कठोर तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया था.  उस महान पुरुष मान्धाता के नाम पर ही इस पर्वत का नाम मान्धाता पर्वत हो  गया. ओंकारेश्वर लिंग किसी मनुष्य के द्वारा गढ़ा, तराशा या बनाया हुआ नहीं  है, बल्कि यह प्राकृतिक शिवलिंग है. इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है.  प्राय: किसी मन्दिर में लिंग की स्थापना गर्भ गृह के मध्य में की जाती है  और उसके ठीक ऊपर शिखर होता है, किन्तु यह ओंकारेश्वर लिंग मन्दिर के गुम्बद के नीचे नहीं है. इसकी एक विशेषता यह भी है कि मन्दिर के ऊपरी शिखर पर  भगवान महाकालेश्वर की मूर्ति लगी है.कुछ लोगों की मान्यता है कि यह पर्वत  ही ओंकाररूप है. परिक्रमा के अन्तर्गत बहुत से मन्दिरों के विद्यमान होने के कारण भी यह  पर्वत ओंकार के स्वरूप में दिखाई पड़ता है. ओंकारेश्वर के मन्दिर ॐकार में  बने चन्द्र का स्थानीय ॐ इसमें बने हुए चन्द्रबिन्दु का जो स्थान है, वही  स्थान ओंकारपर्वत पर बने ओंकारेश्वर मन्दिर का है. मालूम पड़ता है इस  मन्दिर में शिव जी के पास ही माँ पार्वती की भी मूर्ति स्थापित है. यहाँ पर भगवान परमेश्वर महादेव को चने की दाल चढ़ाने की परम्परा है.