Tuesday 17 May 2016

गोमती चक्र के तांत्रिक प्रयोग

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गोमती चक्र के तांत्रिक प्रयोग
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गोमती चक्र की बनावट को देखा जाये तो उसके ऊपर चिकने भाग पर हिन्दी के ७ का अंक बना मिलता है,वर्तमान के ज्योतिषियों के अनुसार यह अंक राहु का अंक कहा जाता है और पानी की वस्तु जिसे चन्द्रमा का रूप दिया जाता है उसके अन्दर इस अंक के होने से यह राहु कृत प्रभावो को दूर रखने के लिये अपनी युति को प्रदान करता है साथ ही बेकार की शंका को दूर रखने मे सहायक होता है,जिनकी कुंडली मे राहु चन्द्र की युति होती है वह इसे चांदी की अंगूठी या पेंडल मे बनवाकर धारण कर सकते है।
होली, दिवाली और नव रात्रों आदिपर गोमती चक्र की विशेष पूजा होती है। सर्वसिद्धि योग, अमृत योग और रविपुष्य योग आदि विभिन्न मुहूर्तों पर गोमती चक्र की पूजा बहुत फलदायक होती है।
प्रयोग ----
1 किसी भी रवि पुष्य को गोमती चक्र प्राप्त कर चांदी की डिब्बी मेँ इत्र लगाकर पूजन स्थान पर घर मेँ रखेँ शांती बनी रहेगी
2 व्यपारियोँ को एक बर्तन मे गोमती चक्र रख कर पानी से बर्तन भर देँना चाहिए। नित्य पानी बदलतेँ रहे तो व्यापार मेँ लाभ होता है
3 एक गोमती चक्र को 11 श्वेत गुंजा के साथ कपडे मे लपेट कर रोगी के सर के नीचे रखेँ तो रोगी को जल्दी आराम हो जाता है
4 इसे अपने बच्चे के गले मे बांध दे तो नजर नही लगती
5 अपने जन्मांक की संख्या मे जेब मे रख अदालत जावेँ मुकद्दमे के चक्कर से छूट जाऐँगेँ
6 शत्रु पग की मिट्टी के साथ गोमती चक्र जल मे प्रवाहित करेँ तो शत्रुता त्याग मित्र बने सर्व जन आकर्षण प्रयोग है
7 तांबे के पात्र मे सात चक्र रख उसका पानी पीने से उदर रोग जड से समाप्त होते हैँ
8 चार गोमती चक्र अपने सर से उतार कर चारो दिशाओ मे शुक्ल पक्ष के बुधवार के दिन फेँक आवेँ ताँत्रिक अभिकर्म खत्म होता है।
9 गोमती चक्र की भस्म शहद मे मिलाकर पैरो के नाखून मे लगाने के बाद वात का दर्द दूर होता देखा गया है। साथ ही पैर के अंगूठे मे लगाने के बाद नेत्र ज्योति भी बढती देखी गयी है।
10 गोमती चक्र कम कीमत वाला एक ऐसा पत्थर है जो गोमती नदी मे मिलता है। विभिन्न तांत्रिक कार्यो तथा असाध्य रोगों में इसका प्रयोग होता है। असाध्य रोगों को दुर करने तथा मानसिक शान्ति प्राप्त करने के लिये लगभग 10 गोमती चक्र लेकर रात को पानी में डाल देना चाहिऐ। सुबह उस पानी को पी जाना चाहिऐ । इससे पेट संबंध के विभिन्न रोग दुर होते है।
11 धन लाभ के लिऐ 11 गोमती चक्र अपने पुजा स्थान मे रखना चाहिऐ उनके सामने ॐ श्री नमः का जाप करना चाहिऐ। इससे आप जो भी कार्य करेंगे उसमे आपका मन लगेगा और सफलता प्राप्त होगी । किसी भी कार्य को उत्साह के साथ करने की प्रेरणा मिलेगी।
12 गोमती चक्रों को यदि चांदी अथवा किसी अन्य धातु की डिब्बी में सिंदुर तथा अक्षत डालकर रखें तो ये शीघ्र फलदायक होते है।
13 यदि घर में भूत-प्रेतों का उपद्रव हो तो दो गोमती चक्र लेकर घर के मुखिया के ऊपर घुमाकर आग में डाल दें तो घर से भूत-प्रेत का उपद्रव समाप्त हो जाता है।
14 प्रमोशन नहीं हो रहा हो तो एक गोमती चक्र लेकर शिव मंदिर में शिवलिंग पर चढ़ा दें और सच्चे ह्रदय से प्रार्थना करें। निश्चय ही प्रमोशन के रास्ते खुल जाएंगे।
15 यदि घर में बीमारी हो या किसी का रोग शांत नहीं हो रहा हो तो एक गोमती चक्र लेकर उसे चांदी में पिरोकर रोगी के पलंग के पाये पर बांध दें। उसी दिन से रोगी को आराम मिलने लगता है

Monday 2 May 2016

।।क्या है ‘तन्त्र-शास्त्र'।।


विभिन्न ‘तन्त्र’प्रणेताओं के विचार-द्वारा ‘तन्त्रों’ को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं

१॰ श्री सदा-शिवोक्त तन्त्र,
२॰ पार्वती-कथित तन्त्र,
३॰ ऋषिगण-प्रणीत तन्त्र ग्रन्थ।

यह एक स्वतन्त्र शास्त्र है, जो पूजा और आचार-पद्धति का परिचय देते हुए इच्छित तत्त्वों को अपने अधीन बनाने का मार्ग दिखलाता है। इस प्रकार यह साधना-शास्त्र है। इसमें साधना के अनेक प्रकार दिखलाए गए हैं, जिनमें देवताओं के स्वरुप, गुण, कर्म आदि के चिन्तन की प्रक्रिया बतलाते हुए ‘पटल,पद्धति, कवच, सहस्त्रनाम तथा स्तोत्र’- इन पाँच अंगों वाली पूजा का विधान किया गया है। इन अंगों का विस्तार से परिचय इस प्रकार हैः-

(1) पटल – इसमें मुख्य रुप से जिस देवता का पटल होता है, उसका महत्त्व, इच्छित कार्य की शीघ्र सिद्धि के लिए जप, होम का सूचन तथा उसमें उपयोगी सामग्री आदि का निर्देशन होता है। साथ ही यदि मन्त्र शापित है, तो उसका शापोद्धार भी बताया जाता है।

(2) पद्धति – इसमें साधना के लिए शास्त्रीय विधि का क्रमशः निर्देश होता है, जिसमें प्रातः स्नान से लेकर पूजा और जप समाप्ति तक के मन्त्र तथा उनके विनियोग आदि का सांगोपांग वर्णन होता है। इस प्रकार नित्य पूजा और नैमित्तिक पूजा दोनों प्रकारों का प्रयोग-विधान तथा काम्य-प्रयोगों का संक्षिप्त सूचन इसमें सरलता से प्राप्त हो जाता है।

(3) कचव – प्रत्येक देवता की उपासना में उनके नामों के द्वारा उनका अपने शरीर में निवास तथा रक्षा की प्रार्थना करते हुए जो न्यास किए जाते हैं, वे ही कचव रुप में वर्णित होते हैं। जब ये ‘कचव’, न्यास और पाठ द्वारा सिद्ध हो जाते हैं, तो साधक किसी भी रोगी पर इनके द्वारा झाड़ने-फूंकने की क्रिया करता है और उससे रोग शांत हो जाते हैं। कवच का पाठ जप के पूर्व होता है। भूर्जपत्र पर कवच का लेखन, पानी का अभिमन्त्रण, तिलकधारण, वलय, ताबीज तथा अन्य धारण-वस्तुओं को अभिमन्त्रित करने का कार्य भी इन्हीं से होता है।

(4) सहस्त्रनाम – उपास्य देव के हजार नामों का संकलन इस स्तोत्र में रहता है। ये सहस्त्रनाम ही विविध प्रकार की पूजाओं में स्वतन्त्र पाठ के रुप में तथा हवन-कर्म में प्रयुक्त होते है। ये नाम देवताओं के अति रहस्यपूर्ण गुण-कर्मों का आख्यान करने वाले, मन्त्रमय तथा सिद्ध-मंत्ररुप होते हैं। इनका स्वतन्त्र अनुष्ठान भी होता है।

(5) स्तोत्र – आराध्य देव की स्तुति का संग्रह ही स्तोत्र कहलाता है। प्रधान रुप से स्तोत्रों में गुण-गान एवँ प्रार्थनाएँ रहती है; किन्तु कुछ सिद्ध स्तोत्रों में मन्त्र-प्रयोग, स्वर्ण आदि बनाने की विधि, यन्त्र बनाने का विधान, औषधि-प्रयोग आदि भी गुप्त संकेतों द्वारा बताए जाते हैं। तत्त्व, पञ्जर, उपनिषद् आदि भी इसी के भेद-प्रभेद हैं। इनकी संख्या असंख्य है।
इन पाँच अंगों से पूर्ण शास्त्र ‘तन्त्र-शास्त्र’ कहलाता है।

साधक अधिक-से-अधिक अपने मनको परमात्मा में लगाता है । मन तो प्रकृतिका अंश होनेसे जड़ है और परमात्मा चेतन हैं । अतः मन परमात्मामें कैसे लगेगा ? जड़ तो जड़मे ही लगेगा, चेतन में कैसे लगेगा ? वास्तव में स्वयं (चेतन) ही परमात्मा में लगता है, मन नहीं लगता । जीवका स्वभाव है कि वह वहीं लगता है, जहाँ उसका मन लगता है । संसार में मन लगाने से वह संसार में लग गया । जब वह परमात्मा में मन लगाता है, तब मन तो परमात्मा में नहीं लगता, पर स्वयं परमात्मा में लग जाता है । मन को संसार से हटाकर परमात्मा में लगाने से मन विलीन हो जाता है, खत्म हो जाता है । श्रीमद्भागवत में भगवान् कहते हैं‒

विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते ।
मामनुस्मरतश्चित्तं   मव्येव    प्रविलीयते ॥
                                                (११ । १४ । २७)

‘विषयोंका चिन्तन करनेसे मन विषयोंमें फँस जाता है और मेरा स्मरण करनेसे मन मेरेमें विलीन हो जाता है अर्थात् मनकी सत्ता नहीं रहती ।’
कामनाकी पूर्तिमें तो भविष्य है, पर आवश्यकता की पूर्ति में भविष्य नहीं है । कारण कि सांसारिक पदार्थ सदा सब जगह विद्यमान नहीं हैं, पर परमात्मा सदा सब जगह विद्यमान हैं । अनुभवमें न आये तो भी आँखें मीचकर, अन्धे होकर यह मान लें कि परमात्मा सब जगह मौजूद हैं‒
‘बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च’ (गीता १३ । १५)

‘वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण हैं और चर-अचर प्राणियोंके रूपमें भी वे ही हैं ।’
इस प्रकार सब जगह, सब समय, सब वस्तुओंमें, सब व्यक्तियोंमें सब क्रियाओंमें सब अवस्थाओंमें, सब परिस्थितियोंमें परमात्माको देखते रहनेसे इच्छा नष्ट हो जायगी और आवश्यकताकी पूर्ति हो जायगी ।

शरीर और संसार एक ही जातिके हैं‒
छिति जल पावक गगन समीरा । पंच रचित अति अधम सरीरा ॥
                            (मानस, कि॰ ११ । २)

शरीर हमारे साथ एक क्षण भी नहीं रहता । यह निरन्तर हमारा त्याग कर रहा है । परन्तु भगवान् निरन्तर हमारे हृदयमें विराजमान रहते हैं

‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम्’ (गीता १३ । १७)

‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ (गीता १५ । १५)

‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेउर्जुन तिष्ठति’ (गीता १८ । ६१) ।

तात्पर्य है कि हमें जिसका त्याग करना है, उसका निरन्तर त्याग हो रहा है और जिसको प्राप्त करना है, वह निरन्तर प्राप्त हो रहा है । केवल भोग भोगना और संग्रह करना‒इन दो इच्छाओंका हमें त्याग करना है । ये दो इच्छाएँ ही परमात्मप्राप्तिमें खास बाधक हैं ।