Friday 27 November 2015

आध्यात्मिक पक्ष: संस्कृत में तुलसी को 'हरिप्रिया' कहते हैं. धर्मशास्त्रों में कहा गया है

आयुर्वेद के मुताबिक, धरती पर ऐसा कोई भी पौधा नहीं है, जिसकी कोई उपयोगिता न हो. हर पेड़-पौधे में कुछ न कुछ खास गुण जरूर होते हैं. पर इन वनस्पतियों के बीच कुछ की पूजा का विशेष महत्व है. इनमें तुलसी का महत्व सबसे अधिक बताया गया है.
आध्यात्मिक पक्ष:
संस्कृत में तुलसी को 'हरिप्रिया' कहते हैं. धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि तुलसी लगाने से, पालने से, सींचने से, इसके दर्शन करने से, स्पर्श करने से लोगों के पाप नष्ट हो जाते हैं.
तुलसी से प्रार्थना की गई है, 'हे तुलसी! आप सम्पूर्ण सौभाग्यों को बढ़ाने वाली हैं, सदा आधि-व्याधि को मिटाती हैं, आपको नमस्कार है.'
महाप्रसाद जननी सर्व सौभाग्य वर्धिनी।
आधिव्याधि हरिर्नित्यं तुलेसित्व नमोस्तुते॥
सिर्फ जीवन की नहीं, बल्‍कि अंत काल में भी तुलसी काम आती है. सनातन धर्म में व्यक्ति के मरने से पूर्व उसके मुख में तुलसी जल डालने की प्रथा है.
तुलसी की महिमा बताते हुए भगवान शिव नारदजी से कहते हैं, \'तुलसी का पत्ता, फूल, फल, मूल, शाखा, छाल, तना और मिट्टी आदि सभी पवित्र हैं.\'
ऐसा माना जाता है कि जिन घरों में तुलसी का पौधा लगाया जाता है, वहां सुख-शांति और समृद्धि आती है. आस-पास का वातावरण पवित्र होता है. मन में पवित्रता आती है.
तुलसी के प्रकार:
तुलसी हर रूप में कल्याणकारी है. यह 'राम तुलसी', 'श्याम तुलसी', 'श्वेत तुलसी', 'वन तुलसी' व 'नींबू तुलसी' आदि के नाम से पाई जाती है.
आयुर्वेद में तुलसी का महत्व
तुलसी को वेद में महौषधि बताया गया है, जिससे सभी रोगों का नाश होता है. यह एक बेहतरीन एंटी-ऑक्सीडेंट, एंटी-एजिंग, एंटी-बैक्टेरियल, एंटी-सेप्टिक व एंटी-वायरल है. इसे फ्लू, बुखार, जुकाम, खांसी, मलेरिया, जोड़ों का दर्द, ब्लड प्रेशर, सिरदर्द, पायरिया, हाइपरटेंशन आदि रोगों में लाभकारी बताया गया है.
माना जाता है कि जिन घरों में तुलसी का पौधा होता है, वहां कोई भी वास्तुदोष नहीं होता है. इस

Thursday 19 November 2015

अमरनाथ धाम से जुडी शिव-पार्वती कथा


परिमल ठाकर खंभाड़िया द्वारका
एक बार देवी पार्वती ने देवों के देव महादेव से पूछा, ऐसा क्यों है कि आप अजर हैं, अमर हैं लेकिन मुझे हर जन्म के बाद नए स्वरूप में आकर, फिर से बरसों तप के बाद आपको प्राप्त करना होता है । जब मुझे आपको पाना है तो मेरी तपस्या और इतनी कठिन परीक्षा क्यों? आपके कंठ में पडी़ नरमुंड माला और अमर होने के रहस्य क्या हैं?

महादेव ने पहले तो देवी पार्वती के उन सवालों का जवाब देना उचित नहीं समझा, लेकिन पत्नीहठ के कारण कुछ गूढ़ रहस्य उन्हें बताने पडे़। शिव महापुराण में मृत्यु से लेकर अजर-अमर तक के कर्इ प्रसंंग हैं, जिनमें एक साधना से जुडी अमरकथा बडी रोचक है। जिसे भक्तजन अमरत्व की कथा के रूप में जानते हैं।

हर वर्ष हिम के आलय (हिमालय) में अमरनाथ, कैलाश और मानसरोवर तीर्थस्थलों में लाखों श्रद्घालु पहुंचते हैं। सैकडों किमी की पैदल यात्रा करते हैं, क्यों? यह विश्वास यूं ही नहीं उपजा। शिव के प्रिय अधिकमास, अथवा आषाढ़ पूर्णिमा से श्रावण मास तक की पूर्णिमा के बीच अमरनाथ की यात्रा भक्तों को खुद से जुडे रहस्यों के कारण और प्रासंगिक लगती है।

पौराणिक मान्याताओं के अनुसार, अमरनाथ की गुफा ही वह स्थान है जहां भगवान शिव ने पार्वती को अमर होने के गुप्त रहस्य बतलाए थे, उस दौरान उन ‘दो ज्योतियों’ के अलवा तीसरा वहां कोर्इ प्राणी नहीं था । न महादेव का नंदी और नही उनका नाग, न सिर पे गंगा और न ही गनपति, कार्तिकेय….!

सबसे पहले नंदी को पहलगाम पर छोड़ा महादेव ने

गुप्त स्थान की तलाश में महादेव ने अपने वाहन नंदी को सबसे पहले छोड़ा, नंदी जिस जगह पर छूटा, उसे ही पहलगाम कहा जाने लगा। अमरनाथ यात्रा यहीं से शुरू होती है। यहां से थोडा़ आगे चलने पर शिवजी ने अपनी जटाओं से चंद्रमा को अलग कर दिया, जिस जगह ऐसा किया वह चंदनवाडी कहलाती है। इसके बादगंगा जी को पंचतरणी में और कंठाभूषण सर्पों को शेषनाग पर छोड़ दिया, इस प्रकार इस पड़ाव का नाम शेषनाग पड़ा।

अगले पड़ाव पर गणेश छूटे

अमरनाथ यात्रा में पहलगाम के बाद अगला पडा़व है गणेश टॉप, मान्यता है कि इसी स्थान पर महादेव ने पुत्र गणेश को छोड़ा। इस जगह को महागुणा का पर्वत भी कहते हैं। इसके बाद महादेव ने जहां पिस्सू नामक कीडे़ को त्यागा, वह जगह पिस्सू घाटी है।

.. और शुरू हुर्इ शिव-पार्वती की कथा

इस प्रकार महादेव ने अपने पीछे जीवनदायिनी पांचों तत्वों को स्वंय से अलग किया। इसके पश्चात् पार्वती संग एक गुफा में महादेव ने प्रवेश किया। कोर्इ तीसरा प्राणी, यानी कोर्इ कोई व्यक्ति, पशु या पक्षी गुफा के अंदर घुस कथा को न सुन सके इसलिए उन्होंने चारों ओर अग्नि प्रज्जवलित कर दी। फिर महादेव ने जीवन के गूढ़ रहस्य की कथा शुरू कर दी।

कथा सुनते-सुनते सो गर्इं पार्वती, कबूतरों ने सुनी

कहा जाता है कि कथा सुनते-सुनते देवी पार्वती को नींद आ गर्इ, वह सो गर्इं और महादेव को यह पता नहीं चला, वह सुनाते रहे। यह कथा इस समय दो सफेद कबूतर सुन रहे थे और बीच-बीच में गूं-गूं की आवाज निकाल रहे थे। महादेव को लगा कि पार्वती मुझे सुन रही हैं और बीच-बीच में हुंकार भर रही हैं। चूंकि वैसे भी भोले अपने में मग्न थे तो सुनाने के अलावा ध्यान कबूतरों पर नहीं गया।

वे कबूतर अमर हुए और अब गुफा में होते हैं उनके दर्शन

दोनों कबूतर सुनते रहे, जब कथा समाप्त होने पर महादेव का ध्यान पार्वती पर गया तो उन्हें पता चला कि वे तो सो रही हैं। तो कथा सुन कौन रहा था? उनकी दृष्टि तब दो कबूतरों पर पड़ी तो महादेव को क्रोध आ गया। वहीं कबूतर का जोड़ा उनकी शरण में आ गया और बोला, भगवन् हमने आपसे अमरकथा सुनी है। यदि आप हमें मार देंगे तो यह कथा झूठी हो जाएगी, हमें पथ प्रदान करें। इस पर महादेव ने उन्हें वर दिया कि तुम सदैव इस स्थान पर शिव व पार्वती के प्रतीक चिह्न में निवास करोगे। अंतत: कबूतर का यह जोड़ा अमर हो गया और यह गुफा अमरकथा की साक्षी हो गर्इ। इस तरह इस स्थान का नाम अमरनाथ पड़ा।

मान्यता है कि आज इन दो कबूतरों के दर्शन भक्तों को होते हैं। अमरनाथ गुफा में यह भी प्रकृति का ही चमत्कार है कि शिव की पूजा वाले विशेष दिनों में बर्फ के शिवलिंग अपना आकार ले लेते हैं। यहां मौजूद शिवलिंग किसी आश्चर्य से कम नहीं है। पवित्र गुफा में एक ओर मां पार्वती और श्रीगणेश के भी अलग से बर्फ से निर्मित प्रतिरूपों के भी दर्शन किए जा सकते हैं।

Wednesday 18 November 2015

विज्ञान और धर्म के बीच सहयोगजनवरी १४, २००३तेनजिन ज्ञाछो, परम पावन १४वें दलाई लामा, द्वारा

यह ऐसा समय है जब विनाशकारी भावनाएँ जैसे क्रोध, भय और घृणा संपूर्ण विश्व में विध्वंसकारी समस्याओं को जन्म दे रही है। जहाँ दैनिक समाचार इस तरह की भावनाओं की विनाशकारी शक्ति के विषय में गंभीर चेतावनियाँ दे रहे हैं तो जो प्रश्न हमें पूछना चाहिए वह यह कि हम उन पर काबू पाने के लिए क्या कर सकते हैं?इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसी त्रस्त करने वाली भावनाएँ सदा से ही मानव परिस्थिति का अंग रही है— मानवता हज़ारों वर्षों से उनसे जूझती रही है। पर मेरा विश्वास है कि विज्ञान और धर्म के आपसी सहयोग से इनसे निपटने की दिशा में प्रगति करने का एक मूल्यवान अवसर हमारे पास है।इस को ध्यान में रखते हुए मैं १९८७ से वैज्ञानिक दलों के साथ लगातार संवाद के क्रम में लगा हुआ हूँ। माइंड एंड लाइफ़ इंस्टीट्यूट द्वारा आयोजित इस संवाद श्रृंखला में क्वांटम भौतिकी और ब्रह्माण्डविज्ञान से लेकर करुणा और विनाशकारी भावनाओं तक पर चर्चा हुई है। मैंने पाया है कि ब्रह्माण्ड विज्ञान जैसे ज्ञान क्षेत्रों में जहाँ वैज्ञानिक खोजें एक अधिक गहन समझ प्रदान करती है, ऐसा लगता है कि बौद्ध व्याख्याएँ कभी कभी वैज्ञानिकों को अपने ही क्षेत्र को देखने का एक नया मार्ग देती है।हमारे संवाद ने न केवल विज्ञान को ही लाभ पहुँचाया है अपितु इससे धर्म को भी लाभ हुआ है। यद्यपि तिब्बतियों को आंतरिक दुनिया के विषय में बहुमूल्य ज्ञान है, लेकिन वैज्ञानिक ज्ञान के अभाव में हम आंशिक रूप में भौतिक क्षेत्र में पिछड़े हैं। बौद्ध शिक्षाएँ यथार्थ को समझने के महत्त्व पर बल देती है। इसलिए, हमें ध्यान देना चाहिए कि आधुनिक वैज्ञानिकों ने प्रयोगों से और माप से वास्तव में क्या पाया है जिसे उन्होंने यथार्थ के रूप में प्रमाणित किया है।इन संवादों के प्रारंभ में बौद्ध पक्ष से हम बहुत कम लोग ही होते थे, पहले पहल सिर्फ एक मैं और दो दुभाषिए। परन्तु हाल ही में हमने अपने विहारों में आधुनिक विज्ञान का शिक्षण प्रारंभ किया है और हमारे सबसे हाल ही में हुए विज्ञान संवाद के श्रोताओं में लगभग बीस तिब्बती भिक्षु थे। इस संवाद के लक्ष्य दो स्तरों पर हैं। एक शैक्षणिक स्तर पर है जिसका उद्देश्य ज्ञान का विस्तार है। साधारणतया विज्ञान इस वस्तु-जगत को समझने का एक असाधारण माध्यम रहा है, जिसने हमारे जीवन काल में ही बहुत प्रगति की है, यद्यपि खोजने केलिए अभी भी बहुत कुछ है। परन्तु आधुनिक विज्ञान आंतरिक अनुभवों केबारे में इतना विकसित नहीं प्रतीत होता।इसके विपरीत बौद्ध दर्शन, जो एक प्राचीन भारतीय विचार धारा है, मन की क्रियाओं के विषय में एक गहरी खोज प्रतिबिंबित करता है। पिछली सदियों में बहुत लोगों ने इस क्षेत्र में काम किया है, जिन्हें इस क्षेत्र में हम प्रयोग कह सकते हैं, और अपने ज्ञान पर आधारित अभ्यासों से महत्त्वपूर्ण, यहाँ तक कि असाधारण अनुभव अर्जित किए हैं। इसलिए मानव ज्ञान के विस्तार के लिए वैज्ञानिकों और बौद्ध अध्येताओं के बीच शैक्षणिक स्तर पर और अधिक चर्चाएँ और मिले जुले अध्ययन सहायक होंगे।एक दूसरे धरातल पर यदि मानवता को जीवित रखना है तो सुख तथा आंतरिक शांति महत्त्वपूर्ण है। अन्यथा हमारे बच्चों और उनके बच्चों के जीवन दुखी, हताश और अल्पायु होने कीसंभावना होगी। ११ सितंबर २००१ की त्रासदी ने दिखा दिया कि घृणा से संचालित आधुनिक तकनीक और मनुष्य बुद्धि अत्यधिक विनाश ला सकती है। भौतिक विकास निश्चित रूप से प्रसन्नता में - और एक सीमा तक – आरामदेय जीवन शैली में योगदान देता है। पर यह पर्याप्त नहीं है। सुख के एक और गहन स्तर को प्राप्त करने के लिए हम अपने आंतरिक विकास की उपेक्षा नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए, मैं अनुभव करता हूँ कि हमारे आधारभूत मानवीय मूल्य हमारीभौतिक क्षमताओं के नए शक्तिशाली विकास के साथ कदम नहीं मिला पाए हैं।यही कारण है कि मैं वैज्ञानिकों को लगातार प्रोत्साहित करता रहा हूँ कि वे उच्च स्तर के तिब्बती आध्यात्मिक अभ्यासियों का परीक्षण करें, देखें कि धार्मिक संदर्भ के बाहर उनके आध्यात्मिक अभ्यास के किन प्रभावों से दूसरों को लाभ हो सकता है। एक उपाय यह हो सकता है कि इन आंतरिक विधियों की कार्यपद्धति को स्पष्ट करने के लिए वैज्ञानिकों की सहायता ली जाए। यहाँ महत्त्वपूर्ण बिन्दु यहहै कि हमें चित्त, चेतना और अपनी भावनाओं के संसार के बारे में अपनी समझ बढ़ानी है।पहले ही ऐसे प्रयोग किए जा चुके हैं, जो दिखाते हैं कि कुछ अभ्यासी विचलित करने वाली परिस्थितियों सेघिरे होने पर भी आंतरिक शांति की स्थिति प्राप्त कर सकते हैं। परिणाम ऐसे लोगों को अधिक सुखी, विध्वंसक भावनाओं से कम प्रभावित होने वाले और दूसरों की भावनाओं के प्रति ज्यादा संवेदनशील दिखाते हैं। ये विधियाँ न केवल उपयोगी हैं,अपितु सस्ती भी हैं: आपको न तो कुछ खरीदने की आवश्यकता है और न कारखाने में कुछ बनाने की। आपको किसी दवा या इंजेक्शन की ज़रूरत नहीं।अगला प्रश्न है कि हम यह हितकारी परिणाम उन लोगों के साथ कैसे बाँटे,जो बौद्धों से परे हैं। इसका केवल बौद्ध धर्म अथवा किसी अन्य धार्मिक परम्परा से सम्बन्ध नहीं है – यह केवल मानव के चित्त की क्षमताओं को स्पष्ट करने का प्रयास है। प्रत्येक व्यक्ति, चाहे धनवान हो अथवा निर्धन, शिक्षित हो या अशिक्षित, में एक शांतिपूर्ण और अर्थपूर्ण जीवन जीने की क्षमता होती है। हमें इस बात की खोज करनी चाहिए कि हम कहाँ तक और कैसे उसे संभव कर सकते हैं।उस खोज के दौरान यह स्पष्ट हो जायेगा कि अधिकतर मानसिक विचलन बाहरी कारकों से नहीं बल्कि आंतरिक उभरने वाले क्लेशों से उत्पन्न होते हैं। उथल-पुथल के इन स्रोतों का सबसे उत्तम प्रतिकारक इन भावावेगों से स्वयं निबटने की हमारी अपनी क्षमता को बढ़ाने से मिलेगा। अंततः हमें एक ऐसी चेतना के विकास की आवश्यकता होगी, जो हमेंस्वयं ही नकारात्मक भावनाओं और क्लेशों पर नियंत्रण करने के उपाय उपलब्ध कराए।आध्यात्मिक उपाय उपलब्ध हैं, लेकिन हमें उन्हें उस वर्ग के लिए स्वीकार्य बनाना होगा जिनमें आध्यात्मिक रुझान न हो। ये उपाय तभी व्यापक रूप से प्रभावशाली होंगे यदि हम ऐसा कर सकें। यह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि विज्ञान,तकनीक और भौतिक विकास हमारी सारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। हमें अपने भौतिक विकास को करुणा, सहिष्णुता, क्षमा, संतोष और आत्मानुशासन जैसे मानवीय मूल्यों के आंतरिक विकास के साथ जोड़ने की आवश्यकता है।

Sunday 15 November 2015

યુવા નો માં વધતું જતું પશ્ચિમી સંસ્કૃતિ નું આંધળુ અનુકરણ भार्गव जोषी

યુવા નો માં વધતું જતું પશ્ચિમી સંસ્કૃતિ નું આંધળુ અનુકરણ
માત્ર ૨૪ વર્ષ ની ઉમરે આઝાદી ના હવન માં પોતાની જાતને હોમી દેનારા શહીદ ભગતસિંહ ની આ પવિત્ર ભૂમિ ઉપર યુવા નો દિશા વિહીન થયા હોય તેવો ભાસ ક્યારેક મન માં થાય છે. પશ્ચિમી સંસ્કૃતિ નું આંધળુ અનુકરણ ચારે તરફ ભરપુર જોવા મળે છે જેમાં આજની યુવા પેઢી પણ બાકાત રહી નથી. વધતા વુધ્ધા શ્રમો, ઘરડાં ઘર જાણે જોર જોર થી પોકારી ને કેહતા હોય છે કે     માતૃ દેવો ભવઃ, પિતૃ દેવો ભવઃ ની ભાવના હવે ભૂલાતી જાય છે. આજ ના સમય માં લોકો ની અંગ્રેજી ભાસા પ્રત્યે ની ઘેલછા અને આપની માતૃ ભાસા પ્રત્યે ની ઉપેક્ષા સાહજિક રીતેજ દેખાઈ આવે છે. થોડુંક કડકડાટ અંગ્રેજી બોલતા લોકો પ્રત્યે આપળે તુરંતજ આકર્ષાઈ જઈએ છીએ.
મારી દરેક યુવા ભાઈ બેહનો ને અપીલ છે કે વિશ્વની અતિ પ્રાચીન અને શ્રેષ્ઠ એવી આપણી હિંદુ સંસ્કૃતિ ને જાણવી જોઈએ અને જાળવવી જોઈએ. ચીન, રશિયા, જાપાન, જર્મની, જેવાઘણા દેશો આજે પણ પોતાની માતૃ ભાસા અને સંસ્કૃતિ નેજ પ્રાધાન્ય આપે છે અને છતાં પણ વિશ્વ માં પોતાના નામનો ડંકો વગાડે છે.
દેશની પ્રગતી નો આધાર પુવા પેઢી પર નિર્ભર કરે છે. મારી દરેક યુવાને નમ્ર અરજ છે કે વિશ્વ માં ભારત માતા ની જય જય કર બોલાવવા અને આપણી સંસ્કૃતિ ને ગૌરવ વંતિ બનાવવા ની દિશા માં આપણે આગળ વધવું જોઈએ.
અહી મારો પશ્ચિમી સંસ્કૃતિ પ્રત્યે કોઈ વિરોધ નથી પણ તેનું જે આંધળુ અનુકરણ થાય છે તે ના પ્રત્યે વિરોધ છે. ઘણા એવા સારા પાસા છે જે આપણે પશ્ચિમી સંસ્કૃતિ માંથી શીખવા જોઈએ અને આમ પણ આંધળું અનુકરણ હંમેશા નુકશાન દાયક જ હોય છે.