Friday 29 July 2016

|| मृत्यु से भय कैसा || संकलन *मथुरादास भिंडे जी* डोंबिवली बॉम्बे

                                                            
👌👌👌
राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनातें हुए
जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और
तक्षक ( सर्प ) के काटने से राजा परीक्षित की मृत्यु होने का एक दिन शेष
रह गया, तब भी राजा परीछित का शोक और मृत्यु
का भय दूर नही हुआ.....!!!
.
.
अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन
क्षुब्ध हो रहा था।
.
.
तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा
सुनानी आरंभ की।
.
.
.
राजन ! बहुत समय पहले की बात है, एक राजा किसी
जंगल में शिकार खेलने गया।
.
.
संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा
पहुँचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि पड़ गई और भारी
वर्षा पड़ने लगी।
.
.
जंगल में सिंह व्याघ्र आदि बोलने लगे। वह राजा बहुत
डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में
रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने
लगा।
.
.
रात के समय में अंधेरा होने की वजह से उसे एक दीपक
दिखाई दिया।
.
वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बहेलिये की झोंपड़ी देखी ।
वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था,
इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने
का स्थान बना रखा था।
अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी
की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी
और दुर्गंधयुक्त वह झोंपड़ी थी।
.
.
उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका,
लेकिन पीछे उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय न
देखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहर
जाने देने के लिए प्रार्थना की।
.
.
बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी-
कभी यहाँ आ भटकते हैं। मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ,
लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं।
.
.
इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर
वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने
की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे
झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ।।
.
.
इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता।
मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा।
.
.
राजा ने प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस
झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। उसका काम तो
बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है,
सिर्फ एक रात्रि ही काटनी है।
.
.
बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी, पर सुबह
होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर
देने की शर्त को फिर दोहरा दिया।
.
.
राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा। सोने में
झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि
सुबह उठा तो वही सब परमप्रिय लगने लगा। अपने
जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं निवास
करने की बात सोचने लगा।
.
.
.
वह बहेलिये से और ठहरने की प्रार्थना करने लगा। इस
पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा
कहने लगा।
.
.
राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और
दोनों के बीच उस स्थान को लेकर बड़ा विवाद खड़ा
हो गया।
.
.
.
कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से
पूछा," परीक्षित ! बताओ, उस राजा का उस स्थान
पर सदा के लिए रहने के लिए झंझट करना उचित था ?
"
.
.
परीक्षित ने उत्तर दिया," भगवन् ! वह कौन राजा
था, उसका नाम तो बताइये ? वह तो बड़ा भारी
मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी
प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य
भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है।
उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है। "
श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा," हे राजा
परीक्षित ! वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं।
इस मल-मूल की गठरी देह ( शरीर ) में जितने समय
आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि
तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक
जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। फिर भी आप झंझट
फैला रहे हैं और मरना नहीं चाहते। क्या यह आपकी
मूर्खता नहीं है ?"
.

.
राजा परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन
मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए।
.
.
मेरे भाई - बहनों, वास्तव में यही सत्य है।
.
.
जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो
अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना
करता है कि हे भगवन् ! मुझे यहाँ ( इस कोख ) से मुक्त
कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा।
.

.
और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो ( उस
राजा की तरह हैरान होकर ) सोचने लगता है कि मैं
ये कहाँ आ गया ( और पैदा होते ही रोने लगता है )
फिर उस गंध से भरी झोंपड़ी की तरह उसे यहाँ की
खुशबू ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक
उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता है।
.
यही मेरी भी कथा है और आपकी भी।
   .
     जय श्रीकृष्णा

Monday 11 July 2016

गुप्त नवरात्री का अनुष्ठान एवम् महात्मय मेरी माताजी द्वारा मेरे घर के मंदिर में किया जारहा हे गुप्त अनुष्ठान -विशाल जोषी

आषाढ़और माघ माह के नवरात्रों को ‘गुप्त नवरात्र’ कहा जाता है। इसका ज्ञान बहुत ही सजग शक्ति उपासकों तक सीमित रहता है, इसीलिए इसे ‘गुप्त नवरात्र’ कहा जाता है। गुप्त नवरात्र का माहात्म्य और साधना का विधान ‘देवी भागवत’ व अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। गुप्त नवरात्र भी ‘शारदीय’ और ‘वासंतिक’ नवरात्रों की तरह फलदायी होते हैं। श्रृंगी ऋ षि ने गुप्त नवरात्रों के महत्त्व को बताते हुए कहा है कि ‘जिस प्रकार वासंतिक नवरात्र में भगवान विष्णु की पूजा और शारदीय नवरात्रमें मां शक्ति की नौ विग्रहों की पूजा की प्रधानता रहती है, उसी प्रकार गुप्त नवरात्र दस महाविद्याओं की साधना की जाती है। गुप्त नवरात्रों से एक प्राचीन कथा जुड़ी हुई है। एक समय ऋषि श्रृंगी भक्त जनों को दर्शन दे रहे थे। अचानक भीड़ से एक स्त्री निकल कर आई,और करबद्ध होकर ऋषि श्रृंगी से बोली कि मेरे पति दुर्व्यसनों से सदा घिरे रहते हैं,जिस कारण मैं कोई पूजा-पाठ नहीं कर पाती। धर्म और भक्ति से जुड़े पवित्र कार्यों का संपादन भी नहीं कर पाती। यहां तक कि ऋषियों को उनके हिस्से का अन्न भी समर्पितनहीं कर पाती। मेरा पति मांसाहारी हैं,जुआरी है,लेकिन मैं मां दुर्गा कि सेवा करना चाहती हूं,उनकी भक्ति साधना से जीवन को पति सहित सफल बनाना चाहती हूं। ऋषि श्रृंगी महिला के भक्तिभाव से बहुत प्रभावित हुए। ऋषि ने उस स्त्री को आदरपूर्वक उपाय बताते हुए कहा कि वासंतिक और शारदीय नवरात्रों से तोआम जनमानस परिचित है लेकिनइसके अतिरिक्त दो नवरात्र और भी होते हैं, जिन्हें गुप्त नवरात्र कहा जाता है। प्रकट नवरात्रों में नौ देवियों की उपासना हातीहै और गुप्त नवरात्रों मेंदस महाविद्याओं की साधना की जाती है। इन नवरात्रों की प्रमुख देवी स्वरुप का नाम सर्वैश्वर्यकारिणी  देवी है। यदि इन गुप्त नवरात्रों में कोई भी भक्तमाता दुर्गा की पूजा साधनाकरता है तो मां उसके जीवन को सफल कर देती हैं। लोभी, कामी, व्यसनी, मांसाहारी अथवा पूजा पाठ न कर सकने वाला भी यदि गुप्त नवरात्रों में माता की पूजा करता है तो उसे जीवन में कुछ और करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। उसस्त्री ने ऋ षि श्रृंगी के वचनों पर पूर्ण श्रद्धा करते हुए  गुप्त नवरात्र की पूजा की। मां प्रसन्न हुई और उसके जीवन में परिवर्तन आने लगा, घर में सुख शांति आ गई। पति सन्मार्ग पर आ गया,और जीवन माता की कृपा से खिल उठा।यदि आप भी एक या कई तरह के दुर्व्यसनों से ग्रस्त हैं और आपकी इच्छा है कि माता की कृपा से जीवन में सुख समृद्धि आए तो गुप्त नवरात्र की साधना अवश्य करें। तंत्र और शाक्त मतावलंबी साधना के दृष्टि से गुप्त नवरात्रों के कालखंड को बहुत सिद्धिदायी मानते हैं। मां वैष्णो देवी, पराम्बा देवी और कामाख्या देवी का का अहम् पर्व माना जाता है। पाकिस्तान स्थित हिंगलाज देवी की सिद्धि केलिए भी इस समय को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार दस महाविद्याओं को सिद्ध करने के लिए ऋषि विश्वामित्र और ऋषि वशिष्ठ ने बहुत प्रयास किएलेकिन उनके हाथ सिद्धि नहीं लगी। वृहद काल गणना और ध्यान की स्थिति में उन्हें यह ज्ञान हुआ कि केवल गुप्त नवरात्रों में शक्ति के इन स्वरूपों को सिद्ध किया जा सकता है। गुप्त नवरात्रों में दशमहाविद्याओं की साधना कर ऋषि विश्वामित्र अद्भुत शक्तियों के स्वामी बन गए।   उनकी सिद्धियों की प्रबलता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने एक नई सृष्टि की रचना तक कर डाली थी। इसी तरह, लंकापति रावण के पुत्र मेघनाद ने अतुलनीय शक्तियां प्राप्त करने के लिए गुप्तनवरात्र में साधना की थी। शुक्राचार्य ने मेघनाद को परामर्श दिया था कि गुप्त नवरात्रों में अपनी कुल देवी निकुम्बाला कि साधना करके वह अजेय बनाने वाली शक्तियों का स्वामी बन सकता है। मेघनाद ने ऐसा ही किया और शक्तियां हासिल की।राम, रावण युद्ध के समय केवल मेघनाद ने ही भगवान राम सहित लक्ष्मण जी को नागपाश मे बांध कर मृत्यु के द्वार तक पहुंचा दिया था। ऐसी मान्यता है कि यदि नास्तिक भी परिहासवश इस समय मंत्र साधना कर ले तो उसका भी फल सफलता के रूप में अवश्य ही मिलता है। यही इस गुप्त नवरात्र की महिमा है। यदि आप मंत्र साधना, शक्ति साधना करना चाहते हैं और काम-काज की उलझनों के कारण  साधना के नियमों का पालन नहीं कर पाते तो यह समय आपके लिए माता की कृपा ले कर आता है।गुप्त नवरात्रों में साधना के लिए आवश्यक न्यूनतम नियमों का पालन करते हुए मां शक्ति की मंत्र साधना कीजिए। गुप्त नवरात्र की साधना सभी मनोकामनाएं पूरी करती हैं।  गुप्त नवरात्र के बारे में यह कहा जाता है कि इस कालखंड में की गई साधना निश्चित ही फलवती होती है।हां, इस समय की जाने वाली साधना की गुप्त बनाए रखना बहुत आवश्यक है। अपना मंत्र और देवी का स्वरुप गुप्त बनाए रखें। गुप्त नवरात्र में शक्ति साधना का संपादन आसानी से घर में ही किया जा सकता है। इस महाविद्याओं की साधना के लिए यह सबसे अच्छा समय होता है।गुप्त व चामत्कारिक शक्तियां प्राप्त करने का यह श्रेष्ठ अवसर होता है। धार्मिक दृष्टि से हम सभी जानते हैं कि नवरात्र देवीस्मरण से शक्ति साधना की शुभ घड़ी है। दरअसल, इस शक्ति साधना के पीछे छुपा व्यावहारिक पक्ष यह है कि नवरात्र का समय मौसम के बदलाव का होता है। आयुर्वेद के मुताबिक इस बदलाव से जहां शरीर में वात, पित्त, कफ में दोष पैदाहोते हैं, वहीं बाहरी वातावरण में रोगाणु। जो अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं। सुखी-स्वस्थ जीवन के लिये इनसे बचाव बहुत जरूरी है।  नवरात्र के विशेष काल में देवी उपासना के माध्यम से खान-पान, रहन-सहन और देव स्मरण में अपनाने गए संयम और अनुशासन तन व मन को शक्ति और ऊर्जा देते हैं। जिससे इंसान निरोगी होकर लंबी आयु और सुख प्राप्त करता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार गुप्त नवरात्र में प्रमुख रूप से भगवान शंकर व देवी शक्ति की आराधना की जाती है। देवी दुर्गा शक्ति का साक्षात स्वरूप है। दुर्गा शक्ति में दमन का भाव भी जुड़ा है। यह दमन या अंत होता है शत्रु रूपी दुर्गुण, दुर्जनता, दोष, रोग या विकारों का। ये सभी जीवन में अड़चनें पैदा कर सुख-चैन छीन लेते हैं। यही कारण है कि देवी दुर्गा के कुछ खास और शक्तिशाली मंत्रों का देवी उपासना केविशेष काल में जाप शत्रु, रोग, दरिद्रता रूपी भय बाधा का नाश करने वाला माना गया है।  सभी’नवरात्र’शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा सेलेकर नवमी तक किए जाने वाले पूजन, जाप और उपवास का प्रतीक है- ‘नव शक्ति समायुक्तां नवरात्रं तदुच्यते’। देवी पुराण के अनुसार एक वर्ष में चार माह नवरात्र के लिए निश्चित हैं। नवरात्र के नौ दिनों तक समूचा परिवेश श्रद्धा व भक्ति, संगीत के रंग से सराबोर हो उठता है। धार्मिक आस्था के साथ नवरात्र भक्तों को एकता, सौहार्द, भाईचारे के सूत्रमें बांधकर उनमें सद्भावना पैदा करता है।महत्त्वशाक्तग्रंथो में गुप्त नवरात्रों का बड़ा ही माहात्म्य गाया गया है।  मानव के समस्त रोग-दोष व कष्टों के निवारण के लिए गुप्त नवरात्र से बढ़कर कोई साधनाकाल नहीं हैं। श्री, वर्चस्व, आयु, आरोग्य और धन प्राप्ति के साथ ही शत्रु संहार के लिए गुप्त नवरात्र में अनेक प्रकार के अनुष्ठान व व्रत-उपवास के विधान शास्त्रों में मिलते हैं। इन अनुष्ठानों के प्रभाव से मानव को सहज ही सुख व अक्षय ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। ‘दुर्गावरिवस्या’ नामक ग्रंथ में स्पष्ट लिखा है कि साल में दो बार आने वाले गुप्त नवरात्रों में माघ में पड़ने वाले गुप्त नवरात्र मानव को न केवल आध्यात्मिक बल ही प्रदान करते हैं, बल्कि इन दिनों में संयम-नियम व श्रद्धा के साथ माता दुर्गा की उपासना करने वाले व्यक्ति को अनेक सुख व साम्राज्य भी प्राप्त होते हैं। ‘शिवसंहिता’ के अनुसार ये नवरात्र भगवान शंकर और आदिशक्ति मां पार्वती की उपासना के लिए भी श्रेष्ठ हैं। गुप्त नवरात्रों के साधनाकाल में मां शक्ति काजप, तप, ध्यान करने से जीवन में आ रही सभी बाधाएं नष्ट होने लगती हैं।

जय माँ 

Tuesday 5 July 2016

શ્રીમદ્ ભાગવત એ જીવન જીવવાનો અદ્ભુત ગ્રંથ છે.

શ્રીમદ્ ભાગવત પ્રભુનું વૈકુંઠધામ! અને દસમ સ્કંધ એ પ્રભુનું હૃદય!
શ્રીમદ્ ભાગવત એ માનવ જીવનનું મુક્તિનું મંદિર!
ભગવાન શ્રીકૃષ્ણ પરમાત્મા પોતાનું અવતાર કાર્ય પુર્ણ કરીને સ્વધામ પધાર્યા ત્યારે યોગેશ્વર એવા શ્રીકૃષ્ણે પોતે જ પોતાનું સ્વરૂપ શ્રીમદ્ ભાગવતમાં પધરાવ્યું તે જ શ્રીમદ્ ભાગવત.
ભારતીય અસ્મિતાનો આ જ્યોતિ તેજપૂંજ છે. શ્રીમદ્ ભાગવતનો મહિમા અપાર છે આ મુક્તિ અપાવે તેવો ગ્રંથ છે. ભવસાગર તારણવર એક નૌકા છે. ભારતની ગંગા-યમુના જેવો પવિત્ર ગ્રંથ છુ. જન્મ જન્માંતરના પાપોનો મુક્તિદાયક ગ્રંથ છે.
વૈકુંઠ પાર જવાની પગદંડી છે. પદ્ય પુરાણમાં ઉલ્લેખ છે.
હે અંબરીષ! તું સંસારનો નાથ ઈચ્છતો હો તો નિત્ય ભાગવતનું સ્મરણ કર જે ઘરમાં શ્રી ભાગવત બિરાજે છે તે શ્રી હરિનું હરદ્વાર છે. ડાકોરજીનું એક મંદિર છે વૈષ્ણવોની હવેલી છે. શ્રીમદ્ ભાગવત ભક્તિપ્રધાન ગ્રંથ છે જે માનવ જીવનમાં ચેતના પ્રકટાવે છે શ્રીમદ્ ભાગવતમાં બાર સ્કંધ છે ૩૩૫ અઘ્યાય છે અને અઢાર શ્વ્લોકોનું બનેલું વટ વૃક્ષ છે.
ભક્તિના નવ પ્રકાર છે. (૧) શ્રવણ (૨) કીર્તન (૩) સ્મરણ (૪) પાદસેવા (૫) અર્ચન (૬) વંદન (૭) દાસ્યા (૮) સૈખ્ય (૯) આત્મ નિવેદન વેદવ્યાસના શ્રીમદ્ ભાગવતમાં બધા પાત્રો દ્વારા આ જાણવા મળે છે.
ભક્તિ સાન અને વૈરાગ્યનો આમાં ત્રીવેણી સંગમ છે.
જીવનનું દયેય પરમપદની અને પ્રભુપ્રાપ્તિ છે આ શ્રીમદ્ ભાગવત આપે છે. આ મહાપુરાણ છે તે રસાત્મક ભગવાનનો રસ છે, વૈષ્ણવોનો વેદ છે, તે વૈષ્ણવોનું ધન છે. શ્રીમદ્ ભાગવતની વિશિષ્ટતા એ છે કે ભગવાન પોતાના વ્હાલા ભક્તોનો મહિમા સ્વરૂપે ગાય છે.
શ્રી વલ્લભાચાર્યજી કહે છે કે શ્રીજીબાવાનો રંગ શ્યામ તો શ્રી યમુનાજીનો રંગ પણ શ્યામ શ્રીમદ્ ભાગવત એ સમાધિશાસ્ત્ર છે.
બાળકોને સંસ્કારનું સંિચન કરવું હોય યુવાનોમાં ભક્તિનાં બીજ વાવવાં હોય ઘરમાં ધાર્મિક વાતાવરણ ઉભુ કરવું હોય તો ભાગવતજીનો એક પાઠ નિત્ય ઘરમાં કરવો જોઈએ.
ઘરમાં જે ભાગવતનું પઠન ચંિતન કરશે તેની ઘરે કાળ આવશે નહિ.
સત્યુગમાં વિષ્ણુનું ઘ્યાન કરવાથી, ત્રેતાયુત્રમાં પસો કરવાથી દ્વાપર યુગમાં પૂજા કરવાથી ફળ મળતું હતું તે ફળ કળિયુગમાં ભાગવતજીનું શ્રવણ કરવાથી મળે છે. શ્રીમદ્ ભાગવતજી ભગવાનની શબ્દાત્મક મૂર્તિ છે. શ્રીમદ્ ભાગવતના શબ્દો તે શ્રીકૃષ્ણ છે અને ગે ગુઢ અર્થો છે તે શ્રીરાધાજી છે.
સૂરદાસ કહે છેઃ-
‘‘નિગમકલ્પતરૂ શીતલ છાયા
દ્રદશવેડ પુષ્ટિધન પલ્લવ
ત્રિગુણ-તત્ત્વ વ્યારો નહિ માયા
ફલ અતિ મઘુર સુંદર પુષ્પ-યુક્ત
અધ અસ અધાન દૂર કરનકો
નવધા ભક્તિ ચારુ મુક્તિફલ
જ્ઞાન બીજ અસ બ્રમરસ પ્રીતા’’
ઉઘ્ધવજી કૃષ્ણ સ્વધામ જતા હતા ત્યારે મુક્તિનો માર્ગ કયો? તેવું પૂછે છે હિમાલય શ્રી બદકા આશ્રમમા જવાનો આદેશ આપે છે ત્યારે ઉઘ્ધવજી કહે છે કે પ્રભુ! સ્વાનુભવ અને આપનાં દર્શન કયાં મળે? ભગવાન શ્રીકૃષ્ણ કહે છે કે શ્રીમદ્ ભાગવત મારૂ સ્વરૂપ જ છે તેનું દર્શન પૂજન, અર્ચન કરજે. મારૂ સ્વરૂપ જરૂર દેખાશે.
શ્રીમદ્ ભાગવતમાં કુંતી સ્તુતિ
ભિસ્મસ્તુતિ, મંગલાચરણ નારાયણ કવચ, અદભુત છે.
શ્રી વેણુંગીત શ્રી ગોપીગીત શ્રી યુગલાગીત શ્રી ભ્રમર ગીત સંસારના અદભુત ભક્તિ ગીત છે.
શ્રીમદ્ ભાગવતમાં !!શ્રી કૃષ્ણ શસ્ણં મમ!!
અદભુત મંત્ર છુપાયેલો છે કૃષ્ણાય વાસુદેવા ૫ નમઃ નમો ભગવતે તુભ્યં નમઃ પંકજ ના ભાય સ્વપ્નદાષ્ટા મહોત્પાતા જેવા અનેક અદ્ભુત મંત્રો છે.
૧૮ શ્વ્લોકોમાં ‘નંદ મહોત્સવ’ કર્યો છે આજના કળિયુગમાં નંદમહોત્સવ આનંદ આપે છે.
જીવોને સુધારતી અને મરણને સુધારતી આ કથા પરમહંસોની કથા છે કથા દિવ્ય છે બધા જ ધર્મોના સાર આમાં છે.
ભાગવત ભક્તિ જ્ઞાન અને વૈરાગ્ય શુ છે તે શિખવે છે.
ગોપીગીતમાં ભગવાન ગોપીઓને વિરહ કરાવે છે ત્યારે ગોપીઓ બોલે છેઃ-
તવકથામૃતં તૃપ્ત જીવનં કવિભિરાહિતં શ્રવણ મંગલં શ્રીમદાતતં ભુવિ કલ્મષાપહમ્ ।
તમારા કથા તૃપ્ત ‘ગૃણન્તિ તે ભૂરિદા જનાઃ।।
જીવને પાવર કરનારા છે’
શ્રી કૃષ્ણભક્તિની ગંગામાં ન્હાવું હોય તો શ્રીમદ્ ભાગવતનો આશરો લેવો પડે જ
શ્રીમદ્ ભાગવતમાં ચોવીસ અવતારો વર્ણાવ્યા છે ‘પરમાત્મા’ એટલે શું?
પ =પાંચ
ર =બે
મા = સાડા ચાર
ત્મા = આઠ (અર્ધો ત્) છેલ્લે સાડા ચાર ભાગવતનું ફળ દસમ સ્કંધ છે.
અગીયારના સ્કંધમાં ધરતી, વાયુ, જળ, અગ્નિ, ચંદ્ર, સૂર્ય, અજગર, સમુદ્ર, પતંગિયુ, મધમાખી એમ (૨૪) ના બોધ શીખવા જેવા છે.
શ્રીમદ્ ભાગવતની આરતીમાં આવે છે કે...
ૐ જયદેવ, જયદેવ જય જય શ્રી કૃષ્ણા
પ્રભુ જય જય શ્રી કૃષ્ણા
દ્વાદંશ સ્કંધની આરતી જે કોઈ ગાશે
જે ભાવે ગાશે
શ્રી શુકદેવ કૃપાથી હરિચરણે જાશે
ૐ જયદેવ જયદેવ ।।
ભાગવતજીમાં શુકદેવજી અંતે પરિક્ષીત ને કહે છે હે પરિક્ષીત ! તારા જીવનનો અંતીમ દિવસ આવશે હૃદયમાં ભગવાન પ્રત્યે શ્રઘ્ધા ભાવના રાખજે !
શ્રીમદ્ ભાગવત એ જીવન જીવવાનો અદ્ભુત ગ્રંથ છું, માનવ મુક્તિનું મંદિર છું.

Sunday 3 July 2016

श्री हनुमान चालीसा (भावार्थ एवं गूढार्थ सहित)..... संकलन परिमल भाई ठाकर द्वारका


                   
     ॥ श्री हनुमते नम: ॥

चौपाई:-अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन्ह जानकी माता॥ (31)

अर्थ :- हे हनुमंत लालजी आपको माताश्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुवा है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां (सब प्रकार की सम्पत्ति) दे सकते हैं।

गूढार्थ :- तुलसीदासजी लिखते है कि हनुमानजी अपने भक्तो को आठ प्रकार की सिद्धयाँ तथा नौ प्रकार की निधियाँ प्रदान कर सकते हैं ऐसा सीतामाता ने उन्हे वरदान दिया।

जिन साधक में सेवा की तल्लीनता एवं तत्परता हो, जो राम जी के कार्य को सम्पादित करने में ही अपने जन्म की सार्थकता और सफलता समझता हो, उसके लिए फिर किसी भी प्रकार की शक्ति, संपत्ति, भक्ति अथवा मुक्ति असंभव नहीं रह जाती।

भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को प्रसन्न होकर आलिंगन दिया और सीताजी ने उन्हे ‘अष्ट सिद्ध नव निधि के दाता’ का वर प्रदान किया।

सच्चे साधक की सेवा के लिए सिद्धियाँ अपने आप सदैव तैयार रहती है।
यौगिक सिद्धियाँ आठ प्रकार की हैं।
1.अणिमा, 2.महिमा, 3.गरिमा, 4.लघिमा, 5.प्राप्ति, 6.प्राकाम्य, 7.ईशित्व और 8.वशित्व।

यह अष्ट सिद्धियां बड़ी ही चमत्कारिक होती है, इन अष्टसिद्धियों ने राम-कार्य-सम्पादन में हनुमानजी को सहायता प्रदान की।

1.अणिमा :- इस सिद्धि के बल पर हनुमानजी कभी भी अति सूक्ष्म रूप धारण कर सकते हैं।

2. महिमा :- इस सिद्धि के बल पर हनुमानजी ने कई बार विशाल रूप धारण किया है।

3. गरिमा :- इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी स्वयं का भार किसी विशाल पर्वत के समान कर सकते हैं।

4. लघिमा :- इस सिद्धि से हनुमानजी स्वयं का भार बिल्कुल हल्का कर सकते हैं और पलभर में वे कहीं भी आ-जा सकते हैं।

5. प्राप्ति :- इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी किसी भी वस्तु को तुरंत ही प्राप्त कर लेते हैं।
पशु-पक्षियों की भाषा को समझ लेते हैं, आने वाले समय को देख सकते हैं।

6. प्राकाम्य :- इसी सिद्धि की मदद से हनुमानजी पृथ्वी गहराइयों में पाताल तक जा सकते हैं, आकाश में उड़ सकते हैं और मनचाहे समय तक पानी में भी जीवित रह सकते हैं।

7. ईशित्व :- इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी को दैवीय शक्तियां प्राप्त हुई हैं।

8. वशित्व :- इस सिद्धि के प्रभाव से हनुमानजी जितेंद्रिय हैं और मन पर नियंत्रण रखते हैं।

तुलसीदासजी ने जिन नौ निधियों का वर्णनकि या है वह इस प्रकार है:-

1. पद्म निधि :- पद्मनिधि लक्षणो से संपन्न मनुष्य सात्विक होता है तथा स्वर्ण चांदी आदि का संग्रह करके दान करता है।

2. महापद्म निधि :- महाप निधि से लक्षित व्यक्ति अपने संग्रहित धन आदि का दान धार्मिक जनों में करता है।

3. नील निधि :- निल निधि से सुशोभित मनुष्य सात्विक तेज से संयुक्त होता है, उसकी संपति तीन पीढी तक रहती है।

4. मुकुंद निधि :- मुकुन्द निधि से लक्षित मनुष्य रजोगुण संपन्न होता है वह राज्यसंग्रह में लगा रहता है।

5. नन्द निधि :- नन्दनिधि युक्त व्यक्ति राजस और तामस गुणों-वाला होता है वही कुल का आधार होता है।

6. मकर निधि :- मकर निधि संपन्न पुरुष अस्त्रों का संग्रह करने-वाला होता है।

7. कच्छप निधि :- कच्छप निधि लक्षित व्यक्ति तामस गुणवाला होता है वह अपनी संपत्ति का स्वयं उपभोग करता है।

8. शंख निधि :- शंख निधि एक पीढी के लिए होती है।

9. खर्व (मिश्र) निधि :- खर्व निधि वाले व्यक्ति के स्वभाव में मिश्रीत फल दिखाई देते हैं।

परमात्मा के प्रसाद बिना सिद्धि नहीं पायी जा सकती अर्थात् साधक को भगवान का हाथ चाहिए।
भगवान हमारा हाथ पकडे इसलिए हमारे हाथ में भी कुछ होना चाहिए।

हमारा जीवन ऐसा होना चाहिए कि उसे देखकर भगवान प्रसन्न हो जाएं।
हमारी बुद्धि, हमरा मन ऐसे बनने चाहिए कि उन्हे देखकर भगवान खुश हो जाएं।

एक बार भगवान के बन गये तो फिर साधक को सिद्धि और संपत्ति का मोह नहीं रहता, उसका लक्ष्य केवल भगवद् प्राप्ति होता है।

कुछ लोग केवल सिद्धि प्राप्त करने के चक्कर में अपना संपूर्ण जीवन समाप्त कर देते है।

एक बार तुकाराम महाराज को नदी पार करनी थी, उन्होने नाविक को दो पैसे दिये और नदी पार की और भगवान पांडुरंग के दर्शन किये।

थोडी देर के बाद वहाँ एक हठयोगी आया उसने नांव में न बैठकर हठयोग की प्रक्रिया से नदी पार की।

उसके बाद उसने तुकाराम महाराज से पूछा, ‘क्या तुमने मेरी योगशक्ति देखी?’

तुकाराम महाराज ने कहा हाँ, तुम्हारी योग शक्ति मैने देखी मगर उसकी कीमत केवल दो पैसे हैै।

यह सुनकर हठयोगी गुस्से में आ गया, उसने कहा, तुम मेरी योग शक्ति की कीमत केवल दो पैसे गिनते हो?

तब तुकाराम महाराज ने कहा, हाँ मुझे नदी पार करनी थी, मैने नाविक को दो पैसे दिये और उसने नदी पार करा दी।

जो काम दो पैसे से होता है वही काम की सिद्धि के लिए तुमने इतने वर्ष बरबाद किये इसलिए उसकी कीमत दो पैसे मैने कही।

कहने का तात्पर्य हमारा लक्ष्य केवल सिद्धि प्राप्त करना नहीं बल्कि भगवद्प्राप्ति का होना चाहिए।

'मै प्रभु का प्रिय (लाडला) कैसे बनुं' इसका विचार होना चाहिए उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए।

भगवान का लाडला बनना हो तो मन पूर्णत: भगवान को देना होगा।

समपर्णात्मक जीवन, समपर्णात्मक कर्म और सुन्दर (मधुर) जीवन यह अध्यात्म है।

यह अध्यात्म यदि ईशसंस्थ होगा तथा तुम यदि भगवान का आश्रय लोगे और इस रास्ते पर आगे बढोगे तो ही विकास होगा, 'अष्ट सिद्धि नौ निधि' मिलेगी।

कृपया अनुरोध है आप सभी परिवार में अपने सभी दोस्तों को भी शेयर जरूर करें

जय जय सिया के प्रभु श्री राम

कौन से ऋषि का क्या है महत्व -परिमल ठाकर अबोटी

अंगिरा ऋषि: ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अंगिरा ब्रह्मा के पुत्र थे। उनके पुत्र बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न की थी।

विश्वामित्र ऋषि: गायत्री मंत्र का ज्ञान देने वाले विश्वामित्र वेदमंत्रों के सर्वप्रथम द्रष्टा माने जाते हैं। आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत इनके पुत्र थे। विश्वामित्र की परंपरा पर चलने वाले ऋषियों ने उनके नाम को धारण किया। यह परंपरा अन्य ऋषियों के साथ भी चलती रही।

वशिष्ठ ऋषि: ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक वशिष्ठ सप्तऋषियों में से एक थे। उनकी पत्नी अरुंधती वैदिक कर्मो में उनकी सहभागी थीं।

कश्यप ऋषि: मारीच ऋषि के पुत्र और आर्य नरेश दक्ष की १३ कन्याओं के पुत्र थे। स्कंद पुराण के केदारखंड के अनुसार, इनसे देव, असुर और नागों की उत्पत्ति हुई।

जमदग्नि ऋषि: भृगुपुत्र यमदग्नि ने गोवंश की रक्षा पर ऋग्वेद के १६ मंत्रों की रचना की है। केदारखंड के अनुसार, वे आयुर्वेद और चिकित्साशास्त्र के भी विद्वान थे।

अत्रि ऋषि: सप्तर्षियों में एक ऋषि अत्रि ऋग्वेद के पांचवें मंडल के अधिकांश सूत्रों के ऋषि थे। वे चंद्रवंश के प्रवर्तक थे। महर्षि अत्रि आयुर्वेद के आचार्य भी थे।

अपाला ऋषि: अत्रि एवं अनुसुइया के द्वारा अपाला एवं पुनर्वसु का जन्म हुआ। अपाला द्वारा ऋग्वेद के सूक्त की रचना की गई। पुनर्वसु भी आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य हुए।

नर और नारायण ऋषि:  ऋग्वेद के मंत्र द्रष्टा ये ऋषि धर्म और मातामूर्ति देवी के पुत्र थे। नर और नारायण दोनों भागवत धर्म तथा नारायण धर्म के मूल प्रवर्तक थे।

पराशर ऋषि: ऋषि वशिष्ठ के पुत्र पराशर कहलाए, जो पिता के साथ हिमालय में वेदमंत्रों के द्रष्टा बने। ये महर्षि व्यास के पिता थे।

भारद्वाज ऋषि: बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज ने 'यंत्र सर्वस्व' नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें विमानों के निर्माण, प्रयोग एवं संचालन के संबंध में विस्तारपूर्वक वर्णन है। ये आयुर्वेद के ऋषि थे तथा धन्वंतरि इनके शिष्य थे।

आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं। यहां प्रस्तुत है वैवस्तवत मनु के काल में जन्में सात महान ‍ऋषियों का संक्षिप्त परिचय।

वेदों के रचयिता ऋषि: ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।

वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- १.वशिष्ठ, २.विश्वामित्र, ३.कण्व, ४.भारद्वाज, ५.अत्रि, ६.वामदेव और ७.शौनक।

पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :-

वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।

अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।

इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।

महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है। यहां प्रस्तुत है वैदिक नामावली अनुसार सप्तऋषियों का परिचय।

१. वशिष्ठ: राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।

२. विश्वामित्र: ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।

माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।

३. कण्व: माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।

४. भारद्वाज: वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।

ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में १० ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के ७६५ मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के २३ मन्त्र मिलते हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।

५. अत्रि: ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।

अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।

६. वामदेव: वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं।

७. शौनक: शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।

फिर से बताएं तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।

इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है।