उत्तर - अवश्य की जा सकती है , कोई मनुष्य अपने से श्रेष्ठ है , तो उसकी पूजा अवश्य करनी चाहिये । हमारी सनातन वैदिक परम्परा है कि अपने से ज्येष्ठ, श्रेष्ठ , वरिष्ठों, अतिथियों का पूजन आसन, अर्घ्य, पाद्य, पत्र, पुष्प, फल , जलादि माध्यमेन किया जाता है । इसीलिए श्री भगवान् इस प्रकार की मनुष्यपूजा को शारीरिक तप कहते हैं, देखें -
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।। [ श्रीमद्भगवद्गीता १७/१४ ]
एवमेव मनु ने भी कहा है -
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ।। [ मनुस्मृतिः २/१२१]
प्रश्न २ - सन्त की पूजा करनी चाहिए या नहीं ?
उत्तर - अवश्य करनी चाहिए , श्री भगवान् आद्य शंकराचार्य कहते हैं कि क्योंकि विद्वान् सत्यसङ्कल्प होता है , इसलिये सत्यसङ्कल्प होने के कारण वह पूजनीय ही है, -
तस्माद्विदुषः सत्यसङ्कल्पत्वाद्........पूजार्ह एवासौ ।।
[शाङ्करभाष्यम् , मु०उप०३/१/१०]
एवमेव श्रीभगवत्पाद् ने अन्यत्र भी यही अनुश्रुति कही है कि जो पुरुष तीनों स्थानों में बतलाई गयी तुल्यता अथवा समानता को निश्चयपूर्वक जानता है , वह महामुनि समस्त प्राणियों का पूजनीय और वन्दनीय होता है -
त्रिषु धामसु यस्तुल्यं सामान्यं वेत्ति निश्चितः ।
स पूज्यः सर्वभूतानां वन्द्यश्चैव महामुनिः ।।
[ माण्डूक्योपनिषद् ,अ०प्र०गौ०का० -२२]
अतः आचार्य ऐसे सन्तों की पूजा एवं वन्दना को अभिहित करते हुए कहते हैं -
यथोक्तस्थानत्रये यस्तुल्यमुक्तं सामान्यं वेत्त्येवमेवैतदिति निश्चितो यः स पूज्यो वन्द्यश्च ब्रह्मविल्लोके भवति ।
[ शाङ्करभाष्यम्, माण्डूक्योपनिषद् ,अ०प्र०गौ०का० -२२]
प्रश्न ३ - भौतिक कामनाऐं लेकर सन्त की पूजा की जा सकती है या नहीं ?
उत्तर - अवश्य की जा सकती है। सकामभावना से की गयी सन्त की पूजा से वे कामनाऐं पूरी होती हैं ।
मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि जिसको इस लोक का यश और सुख-सुविधा चाहिए , वह ज्ञानवान् का पूजन करे अथवा मृत्यु के बाद किसी ऊँचे लोक में जाना हो तब भी सन्त की पूजा करे , जैसा कि -
//वह विशुद्धचित्त आत्मवेत्ता मन से जिस-जिस लोक की भावना करता है और जिन-जिन भोगों को चाहता है, वह उसी-उसी लोक और उन्हीं-उन्हीं भोगों को प्राप्त कर लेता है। इसलिए ऐश्वर्य की इच्छा करने वाला पुरुष आत्मज्ञानी की पूजा करे ।//
यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान्।
तं तं लोकं जयते तांश्च कामांस्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः।।
[ मुण्डकोपनिषद् ३।१।१०]
जब भौतिक कामनाएं सन्तों की पूजा से पूर्ण होती हैं , तो आध्यात्मिक कामनाओं का तो कहना ही क्या , जैसा कि महामुनि पतञ्जलि योगदर्शन , समाधिपाद के ३७ वें सूत्र में कहते हैं कि रागरहित चित्त का विषय करने से चित्त को एकाग्रता की प्राप्ति होती है -
वीतरागविषयं वा चित्तम् । [ योगदर्शनम् १/३७]
वीतराग त्यागात्मा योगियों का चित्त रागरहित होता है , ऐसे अनासक्त महात्माओं के विरक्त चित्त का ध्यान करने से चित्त एकाग्र होता है , जिनका चित्त एकाग्र होता है , वही अपने जीवन में उत्कृष्ट आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करते हैं ।
।। जय श्री राम ।।
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