Sunday, 3 July 2016

श्री हनुमान चालीसा (भावार्थ एवं गूढार्थ सहित)..... संकलन परिमल भाई ठाकर द्वारका


                   
     ॥ श्री हनुमते नम: ॥

चौपाई:-अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन्ह जानकी माता॥ (31)

अर्थ :- हे हनुमंत लालजी आपको माताश्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुवा है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां (सब प्रकार की सम्पत्ति) दे सकते हैं।

गूढार्थ :- तुलसीदासजी लिखते है कि हनुमानजी अपने भक्तो को आठ प्रकार की सिद्धयाँ तथा नौ प्रकार की निधियाँ प्रदान कर सकते हैं ऐसा सीतामाता ने उन्हे वरदान दिया।

जिन साधक में सेवा की तल्लीनता एवं तत्परता हो, जो राम जी के कार्य को सम्पादित करने में ही अपने जन्म की सार्थकता और सफलता समझता हो, उसके लिए फिर किसी भी प्रकार की शक्ति, संपत्ति, भक्ति अथवा मुक्ति असंभव नहीं रह जाती।

भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को प्रसन्न होकर आलिंगन दिया और सीताजी ने उन्हे ‘अष्ट सिद्ध नव निधि के दाता’ का वर प्रदान किया।

सच्चे साधक की सेवा के लिए सिद्धियाँ अपने आप सदैव तैयार रहती है।
यौगिक सिद्धियाँ आठ प्रकार की हैं।
1.अणिमा, 2.महिमा, 3.गरिमा, 4.लघिमा, 5.प्राप्ति, 6.प्राकाम्य, 7.ईशित्व और 8.वशित्व।

यह अष्ट सिद्धियां बड़ी ही चमत्कारिक होती है, इन अष्टसिद्धियों ने राम-कार्य-सम्पादन में हनुमानजी को सहायता प्रदान की।

1.अणिमा :- इस सिद्धि के बल पर हनुमानजी कभी भी अति सूक्ष्म रूप धारण कर सकते हैं।

2. महिमा :- इस सिद्धि के बल पर हनुमानजी ने कई बार विशाल रूप धारण किया है।

3. गरिमा :- इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी स्वयं का भार किसी विशाल पर्वत के समान कर सकते हैं।

4. लघिमा :- इस सिद्धि से हनुमानजी स्वयं का भार बिल्कुल हल्का कर सकते हैं और पलभर में वे कहीं भी आ-जा सकते हैं।

5. प्राप्ति :- इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी किसी भी वस्तु को तुरंत ही प्राप्त कर लेते हैं।
पशु-पक्षियों की भाषा को समझ लेते हैं, आने वाले समय को देख सकते हैं।

6. प्राकाम्य :- इसी सिद्धि की मदद से हनुमानजी पृथ्वी गहराइयों में पाताल तक जा सकते हैं, आकाश में उड़ सकते हैं और मनचाहे समय तक पानी में भी जीवित रह सकते हैं।

7. ईशित्व :- इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी को दैवीय शक्तियां प्राप्त हुई हैं।

8. वशित्व :- इस सिद्धि के प्रभाव से हनुमानजी जितेंद्रिय हैं और मन पर नियंत्रण रखते हैं।

तुलसीदासजी ने जिन नौ निधियों का वर्णनकि या है वह इस प्रकार है:-

1. पद्म निधि :- पद्मनिधि लक्षणो से संपन्न मनुष्य सात्विक होता है तथा स्वर्ण चांदी आदि का संग्रह करके दान करता है।

2. महापद्म निधि :- महाप निधि से लक्षित व्यक्ति अपने संग्रहित धन आदि का दान धार्मिक जनों में करता है।

3. नील निधि :- निल निधि से सुशोभित मनुष्य सात्विक तेज से संयुक्त होता है, उसकी संपति तीन पीढी तक रहती है।

4. मुकुंद निधि :- मुकुन्द निधि से लक्षित मनुष्य रजोगुण संपन्न होता है वह राज्यसंग्रह में लगा रहता है।

5. नन्द निधि :- नन्दनिधि युक्त व्यक्ति राजस और तामस गुणों-वाला होता है वही कुल का आधार होता है।

6. मकर निधि :- मकर निधि संपन्न पुरुष अस्त्रों का संग्रह करने-वाला होता है।

7. कच्छप निधि :- कच्छप निधि लक्षित व्यक्ति तामस गुणवाला होता है वह अपनी संपत्ति का स्वयं उपभोग करता है।

8. शंख निधि :- शंख निधि एक पीढी के लिए होती है।

9. खर्व (मिश्र) निधि :- खर्व निधि वाले व्यक्ति के स्वभाव में मिश्रीत फल दिखाई देते हैं।

परमात्मा के प्रसाद बिना सिद्धि नहीं पायी जा सकती अर्थात् साधक को भगवान का हाथ चाहिए।
भगवान हमारा हाथ पकडे इसलिए हमारे हाथ में भी कुछ होना चाहिए।

हमारा जीवन ऐसा होना चाहिए कि उसे देखकर भगवान प्रसन्न हो जाएं।
हमारी बुद्धि, हमरा मन ऐसे बनने चाहिए कि उन्हे देखकर भगवान खुश हो जाएं।

एक बार भगवान के बन गये तो फिर साधक को सिद्धि और संपत्ति का मोह नहीं रहता, उसका लक्ष्य केवल भगवद् प्राप्ति होता है।

कुछ लोग केवल सिद्धि प्राप्त करने के चक्कर में अपना संपूर्ण जीवन समाप्त कर देते है।

एक बार तुकाराम महाराज को नदी पार करनी थी, उन्होने नाविक को दो पैसे दिये और नदी पार की और भगवान पांडुरंग के दर्शन किये।

थोडी देर के बाद वहाँ एक हठयोगी आया उसने नांव में न बैठकर हठयोग की प्रक्रिया से नदी पार की।

उसके बाद उसने तुकाराम महाराज से पूछा, ‘क्या तुमने मेरी योगशक्ति देखी?’

तुकाराम महाराज ने कहा हाँ, तुम्हारी योग शक्ति मैने देखी मगर उसकी कीमत केवल दो पैसे हैै।

यह सुनकर हठयोगी गुस्से में आ गया, उसने कहा, तुम मेरी योग शक्ति की कीमत केवल दो पैसे गिनते हो?

तब तुकाराम महाराज ने कहा, हाँ मुझे नदी पार करनी थी, मैने नाविक को दो पैसे दिये और उसने नदी पार करा दी।

जो काम दो पैसे से होता है वही काम की सिद्धि के लिए तुमने इतने वर्ष बरबाद किये इसलिए उसकी कीमत दो पैसे मैने कही।

कहने का तात्पर्य हमारा लक्ष्य केवल सिद्धि प्राप्त करना नहीं बल्कि भगवद्प्राप्ति का होना चाहिए।

'मै प्रभु का प्रिय (लाडला) कैसे बनुं' इसका विचार होना चाहिए उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए।

भगवान का लाडला बनना हो तो मन पूर्णत: भगवान को देना होगा।

समपर्णात्मक जीवन, समपर्णात्मक कर्म और सुन्दर (मधुर) जीवन यह अध्यात्म है।

यह अध्यात्म यदि ईशसंस्थ होगा तथा तुम यदि भगवान का आश्रय लोगे और इस रास्ते पर आगे बढोगे तो ही विकास होगा, 'अष्ट सिद्धि नौ निधि' मिलेगी।

कृपया अनुरोध है आप सभी परिवार में अपने सभी दोस्तों को भी शेयर जरूर करें

जय जय सिया के प्रभु श्री राम

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