उनके सतीत्व में इतना बल था कि अगर कोई भी उनको
स्पर्श तक करता तो तत्काल भस्म हो जाता।
रावण ने जिनका हरण किया वो वास्तविक माता सीता ना
होकर उनकी प्रतिकृति छाया मात्र थी।
इसके पीछे एक गूढ रहस्य है, जिसका महर्षि बाल्मीकि कृत
रामायण व गोस्वामी तुलसी कृत रामचरित मानस में स्पष्ट
वर्णन है...
पंचवटी पर निवास के समय जब श्री लक्ष्मण वन में लकडी
लेने गये थे तो प्रभु श्री राम ने माता जानकी से कहा-
"दोहा- लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद॥२३॥
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला।
मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा।
जौ लगि करौं निसाचर नासा॥
जबहिं राम सब कहा बखानी।
प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता।
तैसइ सील रुप सुबिनीता॥
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना।
जो कछु चरित रचा भगवाना॥
-----(अरण्य कांड)
अर्थात- लक्ष्मण जी जब कंद मूल फल लेने गए तब प्रभु
श्री राम माता सीता से कल्लोल वश ये कहा,,
''हे प्रिये ! सुन्दर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशिले !
मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा।
इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ तब तक तुम
अग्नि में निवास करो।
प्रभु श्री राम ने ज्यों हि सब समझा कर सब कहा त्योंही
माता सीता प्रभु के चरणों को ह्रदय में धर कर अग्नि में
समां गयीं।
प्रभु की लीला को लक्ष्मण ने भी नही जाना।
इसीलिए रावण वध के पश्चात जब श्री राम ने लक्ष्मन से
अग्नि प्रज्वलित करने के लिए कहा कि सीता अग्नि पार
करके ही मेरे पास आयेंगी।
.. तो सुमित्रानंदन क्रोधित हो गये कि भइया आप मेरी
माता समान भाभी पर संदेह कर र्हे हैं..
मैं ऐसा नहीं होने दुंगा..
तब राम ने लक्ष्मण को सारा रहस्य बताया और कहा हे
लक्ष्मण सीता और राम तो एक ही हैं..
सीता पर संदेह का अर्थ है मैं स्वयं पर संदेह कर रहा हूँ...
और छायारुपी सीता की बात बताई और कहा कि
रावण वास्तविक सीता को अगर छू भी लेता तो
तत्काल भस्म हो जाता...
इसके बाद स्वयं माता जानकी ने लक्ष्मण से कहा...
"लक्ष्मन हो तुम धर्म के नेगी।
पावक प्रगट करो तुम वेगी॥"
हे लक्ष्मण अगर तुमने धर्म का पालन किया है तो शीघ्रता
से अग्नि उत्पन्न करो...
उसके बाद छायारुप मां जानकी अग्नि में प्रविष्ट हो गई
और वास्तविक सीता मां श्री राम के पास आ गई..॥
वैसे तो उपरोक्त वृतांत रामचरितमानस की चौपाइयों को
आधार बनाकर मैंने वर्णन किया है, फिर भी बहुत से ज्ञानी
या कहूं मतिमूढ,नकली(छायारुप) सीता वाली बात पर
विश्वास नहीं करेंगे...
त्रेताकाल के एक बहु-चर्चित देवी सीता की अग्नि-परीक्षा का
प्रसंग इसका उदाहरण है,
वर्णानानुसार देवी-सीता के लंका से लौटने पर श्री राम ने उन्हें
ज्यों-का-त्यों स्वीकार नहीं किया।
रूखे वचन कहकर उन्हें अपनी चारित्रिक विशुद्धता प्रमाणित
करने को कहा।
देवी सीता ने तुरंत इस चुनौती को स्वीकार किया और प्रचण्ड
अग्नि से गुज़रकर ‘अग्नि परीक्षा’ दी।
यह ऐतिहासिक दृष्टांत विद्वानों, समाजवादियों,
खासकर तथा-कथित नारी-संरक्षकों के लिए सदा
से विवाद का विषय रहा है।
वे इसे नारी की अस्मिता के प्रति घोर अन्याय मानते आए हैं।
परन्तु ऐसा केवल इसलिए है, क्यूँकि वे इस परीक्षा के तल में
छिपे वैज्ञानिक सत्य को नहीं जानते।
दरअसल यह लीला एक अनुपम विज्ञान था।
इसकी भूमिका सीता हरण से पहले ही रची जा चुकी थी।
अध्यात्म रामायाण (अरण्य काण्ड, सप्तम सर्ग) में स्पष्ट रूप
से वर्णित है- अथ रामः अपि ---- शुभे
अर्थात रावण के षड़यंत्र को समझ, प्रभु श्री राम देवी सीता से
एकांत में कहते हैं-
‘है शुभे! मैं जो कहता हूँ,ध्यानपूर्वक सुनो।
रावण तुम्हारे पास भिक्षु रूप में आएगा।
अतः तुम अपने समान आकृति वाली प्रतिबिम्ब देह कुटी में
छोड़कर अग्नि में विलीन हो जाओ।
एक वर्ष तक वहीं अदृश्य रूप में सुरक्षित वास करो।
रावण वध के पश्चात्त तुम मुझे अपने पूर्ववत स्वरुप में पा लोगी।’
आगे (अरण्य काण्ड २३/२) में लिखा है कि प्रभु का यह सुझाव
पाकर श्री सीता जी अग्नि में अदृश्य हो गयी व अपनी छायामुर्ति
कुटी में पीछे छोड़ गयीं-
माँ सीता के इस वास्तविक स्वरुप को पुनः प्राप्त करने के लिए ही
अग्नि-परीक्षा हुई थी।
सो,यही अग्नि-परीक्षा के पीछे की सच्ची वास्तविकता है।
परन्तु आज का बौधिक व युवा वर्ग इसे एक अलंकारिक
अतिशयोक्ति या जादुई चमत्कार मान बैठता है।
किन्तु ऐसा बिल्कुल नहीं है।
दार्शनिक स्पिनोजा कहतें हैं ' Nothing happens in nature
which is in contradiction with its Universal laws'.
डॉ. हर्नाक कहते है 'जिन्हें हम चमत्कार समझते हैं,वे घटनाएँ भी
इस सृष्टि और काल के व्यापक नियमों के आधीन हैं।
अर्थात ब्रह्मांड में जो कुछ भी घटित होता है वह ब्रह्मांड के नियमों
के अनुकूल होता है।
हाँ,यह बात अलग है कि हम उन उच्च कोटि के नियमों
को नहीं जानते हों।'
ऋषि पातंजलि इस प्रतिबिम्ब शरीर को निर्माण देह,
बोध शास्त्र निर्माण काया कहते हैं।
‘ एकोअहं बहुस्याम’ की ताल पर श्री कृष्ण का रासलीला के
अंतर्गत अनेक स्वरूपों में प्रकट होना;कौशल्यानंदन का
शयनकक्ष व रसोईघर में एक समय में ही विद्यमान
होना- ये सभी योगविज्ञान के साधारण से प्रयोग हैं।
विपत्ति काल में सत्गुरु अपने दीक्षित शिष्यों की पुकार पर
वे एक ही समय में विश्व के अनेकों भागों में समान रूप,रंग,
गुण,कौशल व अभेद देह में प्रकट होते रहे हैं और
अपना विरद निभाने के लिए आगे भी यूँ ही प्रकट होते रहेंगे।
किस प्रकार यह प्रकटिकरण होता है? दरअसल, इस सृष्टि में
जीव, वस्तु या किसी भी प्रकार की सत्ता के निर्माण में दो
अनादि तत्त्वों का मेल चाहिए होता है।
उपादान तत्त्व- यह प्रकृति का सूक्ष्म जड़ तत्त्व है।
इसके स्थूल रूप को विज्ञान ‘मैटर’ कहता है।
यह तत्व त्रिगुण (सत्व,रजस,तमस) से युक्त होता है।
यह एक तरह से सृष्टि की प्रत्येक सत्ता का raw material
माना जाता है।
निमित्त तत्व - यह एक चैतन्य शक्ति है,जो चेतना के रूप में
सम्पूर्ण सृष्टि व उसके कण-कण में समाई हुई है।
इसे वैज्ञानिक शब्दावली में'cosmic precociousness'
-भी कहा गया है।
इन दोनों तत्वों के परस्पर संयोग से ही ‘निर्माण’ सधता है।
किस प्रकार ?
इसके लिए हम एक सरसरी दृष्टि'Creation of Universe'
पर डालें,जहाँ ये दोनों तत्व अपने शुद्धतम रूप में प्रकट थे
और ‘सृष्टि निर्माण’ में विशुद्ध भूमिका निभा रहे थे।
उपादान( Matter ) + निमित्त ( Conciousness )
= सृष्टि (Universe)
दरअसल इस देह रचना में भी ठीक ‘सृष्टि रचना’ का ही
विज्ञान काम करता है।
वही दो अनादी तत्वों का प्रयोग होता है-ब्रह्मचेतना तथा
प्रकृति के उपादान तत्त्व।
यूँ तो चेतना प्रत्येक मनुष्य में क्रियाशील रहती है।
परन्तु यह प्रगाढ़ वासनाओं, करम- संस्कारों,अविद्या,
अज्ञानता से ढ़की और दबी रहती है।
अध्यात्म-ज्ञान या ब्रह्मज्ञान की साधना से ये समस्त
आवरण दूर होते हैं व चेतना शुद्धतम प्रखर रूप में प्रकट होती है।
पूर्ण आध्यात्मिक विभूतियों ने चेतना के इसी ब्रह्ममय स्वरुप
को पाया हुआ होता है।
जब भी आवश्यक होता है,ये पूर्ण चैतन्य विभूतियाँ अपनी
ब्रह्ममयी चेतना को प्रकृति के उपादान-तत्त्वों -पर आरूढ़
करती हैं।
उनकी यह चेतना प्रकृति के परमाणुओं पर लगाम कसती है ओर
उनमें विक्षोभ पैदा कर देती है।
फिर अपनी इच्छानुसार परमाणुओं में आकर्षण- विकर्षन कर
स्वयं अपनी आकृति की देह निर्मित्त कर लेती हैं।
वह भी मनचाही संख्या में!!
अंततः इस ‘निर्माण देह’ में ‘निर्माण चित्त’ को भी प्रवेश कराके
उसे पूर्ण रूप से सजीव कर देती हैं।
देवी सीता के विषय में भी ठीक यही अनादी विज्ञान प्रयोग में
लाया गया था।
सीता स्वयं में साक्षात चेतना-स्वरूपिणी -माँ भगवती थीं।
उनके लिए प्रकृति के जड़- तत्त्वों से छेड़छाड़ करके एक
प्रतिबिम्ब देह निर्मित कर्म दर्पण देखने के समान सहज था।
परन्तु उनके सन्दर्भ को पूरी तरह प्रकाशित करने के लिए हमें
एक तथ्य और जानना होगा।
वह यह की वेदों में आदिकालीन ब्रह्म-चेतना को ‘वैश्वानर अग्नि’
भी कहा गया है।
ब्रह्मसूत्र में इस अग्नि के विषय में यह बताया गया की यह अग्नि
न तो कोई दैविक अग्नि है,न ही भौतिक है।
यह निःसंदेह आदिकाल की ब्रह्म-अग्नि ही है।
ऋगवेद में कहा गया है (१-५८-१)-
जब यह अग्नि प्रकट होती है, तो अंतरिक्ष में फैल जाती है।
यह प्रकृति के परमाणुओं को सही मार्गों पर ले चलती है और
उनका निर्माण कार्य में प्रयोग करती है।
यहीं नहीं ऋग्वेद में एक अन्य ऋषि का कहना है –
केवल प्रकृति के कण-कण में ही नहीं, यह अग्नि मनुष्य के
अंग-अंग में भी विद्यमान होती है।
परन्तु ध्यान दें, यह अग्नि विद्यमान तो सब में होती है।
लेकिन विशुद्ध रूप से प्रकट केवल विकसित आत्माओं में
ही होती है-(ऋग्वेद १-१-२)
यह अग्नि पूर्व (कल्प) के ऋषियों को ज्ञात थी।
इस युग के ऋषियों को भी ज्ञात है।
यह सभी दैव-स्वरुप आत्माओं को ज्ञात होती है।
अब इन समस्त जानकारियों को साथ लेकर हम
सीता-अग्नि-परीक्षा के प्रसंग का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं।
देवी सीता की अग्नि-परीक्षा का वैज्ञानिक विश्लेषण :
ऋग्वेद (१-५८-२ ) में वैश्वानर अग्नि की त्रि-स्तरीय भूमिका
दर्शायी गई है।
वैश्वानर अग्नि शाश्वत चेतना है ।
यह प्रकृति के परमाणुओं को -
1. Integrate - संयुक्त करती है।
2. Disintegrate- पृथक भी करती है ।
3. Preserve- सुरक्षित भी रखती है।
यह तीनों वही भूमिकाएँ हैं, जो सृष्टि-निर्माण-
-कार्य में ब्रह्म-चेतना की थीं।
और यही वे वैज्ञानिक क्रियाएँ हैं, जो सीता-अग्नि-परीक्षा
में भी प्रयोग की गईं।
सीता-हरण से पूर्व जब श्री राम ने देवी सीता को अपना
प्रतिबिम्ब पीछे छोड़कर अग्नि में निवास करने को कहा,
तो वास्तव में क्या हुआ ?
क्या वैज्ञानिक-लीला घटी ?
सीता ने तत्क्षण अग्नि प्रकट की। कदाचित यह कोई लौकिक
अग्नि नहीं,
वैश्वानर अग्नि ही थी।
अर्थात सीता ने अपनी ब्रह्म चेतना को सक्रिय किया।
फिर उसके द्वारा प्रकृति के परमाणुओं में हस्तक्षेप किया।
उन्हें प्रयोजनानुसार जोड़कर एक अन्य निज-देह प्रकट कर ली।
यह पहली वैज्ञानिक क्रिया थी।
इसके पश्चात माँ सीता ने ब्रह्म-चेतना या वैश्वानर अग्नि के
द्वारा अपनी वास्तविक देह के परमाणुओं को अलग-अलग
कर दिया।
प्रसंग के अनुसार माँ सीता कि वास्तविक देह अग्नि में विलीन
हो गयी थी।
अग्नि में यह विलीनता वैज्ञानिक स्तर पर वैश्वानर अग्नि
द्वारा देह का उपादान तत्व में बिखर जाना अर्थात'
disintegration -of body'ही था।
यह दूसरी वैज्ञानिक क्रिया थी।
फिर ये पृथक तत्त्व या परमाणु एक वर्ष तक उनकी वैश्वानर
अग्नि के संरक्षण में रहे।
उसी वैश्वानर अग्नि अथवा ब्रह्म-चेतना के,जो सकल सृष्टि के
परमाणुओं की रक्षा करती है व जिसका आह्वान कर ऋषियों ने
कहा- (ऋग्वेद १-१-१) -
हे अग्नि स्वरूप ब्रह्म-चेतना! पिता स्वरुप में,अपनी संतान की
तरह हमारी रक्षा करो।
कहने का आशय यह है कि सीता सशरीर नहीं,परमाणुओं के रूप
में ब्रह्माण्ड की वैश्वानर अग्नि में समाहित रहीं।
यह तीसरी वैज्ञानिक प्रक्रिया थी ।
एक वर्ष बाद ... विजय बिगुल बजे और पुनर्मिलन की बेला आई।
तब पुनः यहीं विज्ञान दोहराया गया।
रामायण (युद्धकाण्ड सर्ग १२/७५ ) के प्रसंगानुसार -
राघव ने एक विशेष कार्य के लिए निर्मित मायावत सीता को देखा
और अग्नि-परीक्षा देने को कहा।
श्री राम का यह कथन,वास्तव में देवी सीता को पुनः उसी वैज्ञानिक
प्रक्रिया का संधान करने की प्रेरणा ही थी।
उस समय प्रतीकात्मक रूप में भौतिक अग्नि जलाई गयी।
परन्तु सीता जी का आह्वान तो वैश्वानर अग्नि के प्रति ही था।
(युद्धकाण्ड सर्ग -१३ )-
हे सर्वव्यापक! अति पावन! लोक साक्षी अग्नि !...
स्पष्ट है,
ये संबोधन लौकिक अग्नि के लिए नहीं हो सकते थे।
अतः लौकिक अग्नि की आड़ में वैश्वानर-अग् -नि (ब्रह्मचेतना)
पुनः सक्रिय हुई।
उसने सीता जी की प्रतिबिम्ब देह के परमाणुओं को बिखेर कर
पुनः प्रकृति में मिला दिया।
फिर वास्तविक देह के परमाणुओं को एकत्र कर पूर्ववत जोड़ दिया।
देवी सीता को सुरक्षित रूप में श्री राम के समक्ष प्रकट किया।
यहीं वैज्ञानिक विलास प्रतीकात्मक शैली में इस प्रकार रखा गया-
लोक साक्षी भगवन वास्तविक जानकी को पिता के समान गोद में
बिठाए हुए प्रकट हुए और रघुनाथ जी से बोले- मेरे पितास्वरूप
संरक्षण में सौंपी हुई जानकी को पुनः ग्रहण कीजिये।
वह प्रतिबिंबरुपिणी -सीता जिस कार्य के लिए रची गयी थी,
उसे पूरा करके पुनः अदृश्य हो गयी है।
यह वचन सुनकर श्री राम ने अत्यंत प्रसन्नता से जानकी जी को
स्वीकार कर लिया।
उसी क्षण इस विज्ञान के ज्ञाताओं - ब्रह्मा,महेश आदि देवताओं
ने आकाश से फूल बरसाए।
परन्तु अवैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वालों ने उस काल से आज
तक कभी सीता पर कलंक,तो कभी राम पार आक्षेप लगाए।
जय माता की !!
जय शिव शम्भू !!
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