Friday, 23 October 2015

तंत्र यन्त्र और मंत्र चिंतन संकलन परिमल ठाकर


         

यह हिन्दूओं की एक उपासना पद्धति है। भगवान शिव इसके जन्मदाता हैं। वैसे तो तंत्र की उत्पत्ति सनातन काल से ही है लेकिन धीरे-धीरे यह लुप्त होती चली गई। नवीं सदी में इस पद्धति ने बुद्धो द्वारा चीन में प्रवेश किया फिर वहाँ से यह जापान पहुँची। इस प्रकार सारे एशिया में इसका प्रचार हुआ। इसके सिद्धांत को गुप्त रखने का प्रावधान है। झाड -फूक एवं जादू-टोने से भी इसका गहरा संबन्ध है। इसे कला भी कहा जा सकता है।

संस्कृत के ‘तन’ धातु से तंत्र शब्द की उत्पत्ति हूइ है। ‘तन’ का अर्थ- तनना विस्तार एवं र्सवव्यापकता है। ‘त्र’ का मतलब- त्राण यानी मुक्ति करने वाला या लाभ करने वाला। कुल मिलाकर तंंत्र का मतलब – जिसके द्धारा र्सवकल्याण किया जा सके वही तंत्र है।

यंत्र

यंत्र कई प्रकार के होते हैं। इसे सामर्थ एवं आवश्यकता के अनुसार स्वर्ण रजत, ताम्र या भोजपत्र पर शुभ मुहूर्त्त में बनाया जाता है। यंत्रों में बीन्दु, त्रिभुज, चर्तुभुज, स्वस्तिक, कमल, पदमदल इत्यादि बने होते है।

यंत्रों पर ध्यान केन्द्रित करके साधक अपने इष्टदेव या किसी लोक-परलोक की आत्मा या शक्ति से संबन्ध स्थापित कर सकते हैं। महर्षि दत्तात्रेय को यंत्र विद्या का जनक माना जाता है। क्योंकि भगवान शिव ने सारे मंत्र-तंत्र को दानवों के दुरुपयोग से बचाने के लिए कीलित कर दिया। तो फिर महर्षि ने ज्यामितीय कला के द्वारा वृत्त, त्रिकोण, अर्द्धवृत्त, चतुष्कोण को आधार बनाकर बीज मंत्रों की सहायता से इन शक्तियों को रेखांकित करके विशिष्ट पूजा-यंत्रों का आविष्कार किया। गुरु गोरखनाथ एवं शंकराचार्य का समय तंत्र विद्या का स्वणिर्म काल था।

मंत्र

मंत्र शब्द मन एवं त्र के संयोग से बना है। यहाँ मन का अर्थ- विचार है और त्र का अर्थ-मुक्ति है। यानी गलत विचारों से मुक्ति। वैसे मंत्रों का कोई शाब्दिक अर्थ नहीं होता है। मंत्र विशिष्ट शब्दों का एक जोडÞ है। जिसका उच्चारण विशिष्ट ध्वनि, तरंग, कंपन एवं  अदृश्य आकृतियों को जन्म देता है। इस प्रकार मंत्र द्वारा निराकार शक्तियाँ साकार होने लगती हैं। मंत्र के लगातार जाप से उत्पन्न संवेग वायुमंडल में छिपी शक्तियों को नियंत्रित करता है और उस पर साधक का प्रभाव एवं अधिकार हो जाता है।

मंत्रों की उत्पति वेदों और पुराणों से हूइ है। वेदों का हर श्लोक एक मंत्र है। वेद के अनुसार मंत्र दो प्रकार के होते हैं।

१. ध्वन्यात्मक २. कार्यात्मक

ध्वन्यात्मक मंत्रों का कोई विशेष अर्थ नहीं होता है। इसकी ध्वनि ही बहुत प्रभावकारी होती है। क्योंकि यह सीधे वातावरण और शरीर में प्रवेश कर एक अलौकिक शक्ति का अनुभव कराती है। इस प्रकार के मंत्र को बीज मंत्र कहते है।

जैसे- ॐ, ऐं, ह्रीं, क्लीं, श्रीं, अं, कं, चं आदि।

कार्यात्मक मंत्रों का उपयोग पूजा पाठ में किया जाता है। जैसे - नमः शिवाय या श्री गणेशायः नमः इत्यादि।
प्रत्येक मंत्र का अलग-अलग उपयोग एवं प्रभाव है। यहाँ मैं केवल ‘ओम’ की व्याख्या करता हूँ। इस मंत्र का संबन्ध नाभि से है। नाभि से जो श्वास के साथ उच्चारण होता है वह सीधे हमारी कुंडलिनी तक पहुंचता है। वैसे मंत्रों का उच्चारण मानसिक रुप से ही लाभकारी होता है लेकिन बीज मंत्रों का उच्चारण ध्वनि के साथ करना लाभकारी होता है। दोनों आँखों के मध्य के भाग को तीसरा नेत्र कहा जाता है। यहाँ पर छठा चक्र अवस्थित है। इस बीज मंत्र के प्रभाव से नाभि से लेकर मस्तिष्क के भीतर बने सहस्त्र दल कमल तक एक स्वरूप अपने आप बनता है। इसकेे लगातार उच्चारण से सिद्धि प्राप्त होती है।  

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